Saturday, 25 July 2020

छद्म आवरण !!

कब तक इस 'छद्म आवरण' में रहना होगा?
कब तक इस 'कुधारा प्रभाव' में बहना होगा?
मौन रहना भी तो एक मूक स्वीकृति है। 
किसी न किसी को तो ये कहना होगा।।

                   (१)
इस अमन की आशा के, 
इस पुरुस्कारों की अभिलाषा के, 
इस आक्रांताओं की भाषा के, 
इस मिथ्या की परिभाषा के, 
भवन को एक न एक दिन तो ढहना होगा
भय में रहना भी तो मन की विकृति है। 
किसी न किसी को तो ये कहना होगा।।

                  (२)
इन 'झूठ' की कहानियों को,
इन 'भाईयों' की मनमानियों को,
इन 'कागजी' राजा - रानियों को,
इन स्वार्थ की निशानियों को,
कब तक समाज को सहना होगा?
प्रश्न न करना भी तो एक बुरी प्रवृत्ति है। 
किसी न किसी को तो ये कहना होगा।।

                  (३)
उस शस्त्र-शास्त्रार्थी परंपरा को,
उस ताण्डवी शिव-शंकरा को,
उस शक्ति-शाँति की परिकल्पना को,
उस सर्व-समावेशी संकल्पना को,
पुनः भारतभूमि से बहना होगा,
मेरे राष्ट्र की तो यही सनातन प्रकृति है। 
किसी न किसी को तो ये कहना होगा।।

विजय गौड़
शनिवार, २५ जुलाई, २०२० 
मॉडेस्टो, कैलीफॉरनिया। 
(सुशांत सिंह की मृत्यु की एकतरफा मिथ्या कहानी और उस पर देशव्यापी आक्रोश को समर्पित, उस  पवित्र आत्मा को श्रद्धांजलि स्वरुप)



विजय की बुद्धिजीविता शृंखला: आलेख १

सेलिब्रिटी (Celebrity): एक मानस उध्योग
एक लम्बे अंतराल से इस विषय पर मेरे मानस में गूढ़ चिंतन चल रहा था और मेरा अंतर्मन मुझे निरंतर इस पर अपना विचार लिखने हेतु प्रेरित कर रहा था। अपना विचार लिखने के पूर्व में ही मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरा मानस स्वयम् इस शब्द से सुशोभित लोगों के प्रभाव में लंबे समय तक रहा है और इस प्रजाति को नायक के रूप में देखता रहा है। कारण कदाचित यह भी रहा कि प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में अनुसंधान (research/analysis) की प्रवृत्ति नहीं होती और न ही उसके पास समय होता है।
मुझे स्मरण होता है बॉलीवुड के एक मनोरंजनकारी (Bollywood entertainer) द्वारा किया हुआ एक विज्ञापन का जिसमें वह गोरे होने की क्रीम बेच रहा है और आज भी मैं यँहा अमेरिका में भी भारतीय किराने की दुकानों में वह क्रीम बिकते हुये देख रहा हूँ। ऐंसे ही साबुन के विज्ञापन भी हम देख सकते हैं भारतीय टेलिविज़न पर जिसमें उसे गोरा होने के लिये प्रचारित किया जाता है और इन सेलिवृटियों का ही उसमें भी प्रयोग होता है। यँहा यह ज्ञात हो कि ये लोग स्वयम् इन उत्पादों का प्रयोग करते हैं या इन्हें इस विषय का कुछ भी ज्ञान होता है, यह कोई मापदण्ड नहीं है।
इसका दूसरा उदाहरण जिसने मुझ पर यह लेख लिखने के लिये एक प्रकार से दबाव सा डाला, उसका भी वर्णन करता हूँ। यह उदाहरण अमेरिका से है जँहा का मनुष्य तो भारत में पॉप कल्चर (बॉलीवुड, मीडिया आदि) द्वारा बुद्धिजीविता की पराकाष्ठा के रूप में प्रचारित किया जाता है। मैं पिछले दो दशक से अधिक समय से अल्कोहोल उध्योग में कार्य कर रहा हूँ और अपने क्षेत्र में एक विशेषज्ञ के रूप में देखा जाता हूँ। अपने इसी कार्य के कारण मुझे अमेरिका से मैक्सिको निरंतर जाना होता है। वँहा एक उत्पाद बनाया जाता है ‘टकीला’ जो इस समय एक अल्कोहली पेय के रूप में विशेष प्रचलित है। वँहा जाकर पता चलता है कि हॉलीवुड का एक सेलिब्रिटी वँहा ‘टकीला’ बनवाता है और अमेरिका में वह उत्पाद बहुत बिकता है। कारण मात्र उसका सेलिब्रिटी (जनमानस पर प्रभाव) होना न कि उस पेय का कोई ज्ञान। पिछले ही वर्ष उसने वह ब्रांड किसी बड़ी कम्पनी को एक बिलीयन डॉलर में बेच दिया। इस बार पुनः मैक़्सिको गया तो पता चला कि एक और दूसरे सेलिब्रिटी ने अपनी ‘टकीला’ ब्रांड बनाना आरंभ कर दिया है और अवश्य ही ४-५ वर्ष बाद वो भी १-२ बिलीयन इसे किसी अन्य समूह को बेच देगा।
इन उदाहरणों से मेरा यह निष्कर्ष निकला कि किस प्रकार एक मनुष्य को पहले फिल्मों में एक नायक के रूप में दिखाकर एक छद्म उत्पन्न किया जाता है और उसके उपरांत उस छद्म छवि से जनसामान्य के मन पर हुये प्रभाव का प्रयोग कर व्यवसाय किया जाता है। यदि मैं जो स्वयम् उस ‘टकीला’ को बनाने का आदि-अन्त समझता है, उसे लेने के लिये विज्ञापन करूँ या उस ब्रांड से जुड़ूँ तो कदाचित एक दो के अतिरिक्त कोई भी उसे मात्र मेरे कहने पर न ले परंतु जब यही सेलिब्रिटी कहता है तो मात्र उसके कहने पर अनेकों लोग अपने कठिन परिश्रम का पैसा लगा देंगे (दिल्ली में आम्रपाली अपार्टमेंट के बारे में विदित ही है)। कहने का आशय यह है कि किस प्रकार मात्र एक व्यावसायिक कार्य हमारे मानस को कैंसे प्रभावित करता है कि हम बिना अधिक जानकारी लिये मात्र इनके कहने से ही कोई उत्पाद प्रयोग करना आरंभ कर देते हैं। इसी व्यवसाय का दूसरा रूप Facebook जैंसे माध्यमों पर देखने को मिलेगा फ़ैन क्लब के रूप में। यह भी पूर्ण व्यावसायिक, नैतिकता कभी भी मापदंड नहीं। इन लोगों का जनमानस पर प्रभाव ही है कि इन्हें उन विषयों पर भी सुना जाता है जिसका इन्हें कोई भी ज्ञान नहीं होता।
क्रमशः........
लेख: विजय गौड़

विजय की बुद्धिजीविता: आलेख २

भारतीय दृष्टि (Indian lense) और पाश्चात्य/अब्राहमी दृष्टि (Western lense)
भूमिका:

यह एक ऐंसा विषय है जिस पर मैं निरंतर पिछले कुछ वर्षों से अध्ययन कर रहा हूँ और जितना अधिक अध्ययन करता जा रहा हूँ, उतनी ही स्पष्टता आती जा रही है। इस विषय पर लिखना इसलिये भी और आवश्यक हो गया है क्यूँकि १९९० के दशक के आस-पास की पीढ़ी की स्तिथि आज यह है कि भारतीय दृष्टि (Indian lense) कुछ होता भी है, वह यह स्वीकार करने की भी मन:स्तिथि में नहीं है। जितना पाश्चात्य (brainwashed) वर्तमान भारतीय शिक्षा और समाज के साथ भारत में रहने वाला किशोर/नवयुवक या युवती है, उतना कदाचित अमेरिका में पलकर बड़ा हो रहा भारतीय पृष्ठभूमि का किशोर-किशोरी भी नहीं है। अपनी पहचान को, अपने मूल को जितना कम आंकने की प्रवृत्ति भारतीयों में है, वह कदाचित ही मैं किसी अन्य देश में देख पाता हूँ। यह मैं विश्व के २० से अधिक देशों में स्वयम् रहने के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। इसका मुख्य कारण यह भी है कि भारत ही विश्व की एकमात्र जीवित सभ्यता है जिसमें निरंतरता शेष है अन्यथा शेष समकालीन सभ्यताएँ तो समाप्त कर दी गयी। यूनान, रोम, माया, परसिया, बेबिलीयोन, मेसोपोटामिया आदि अनेक प्राचीन सभ्यताएँ वर्तमान में मात्र म्यूज़ीयम में ही शोभायमान हैं। उनकी सारी अच्छी बातें आज की विस्तारवादी शक्तियों ने अपने नाम कर दी हैं और वे मात्र पेगंन संस्कृतियों के रूप में निम्न दृष्टि से देखी जाती हैं। भारत के साथ यह शक्तियाँ लगभग १००० वर्ष के दलन के बाद भी वह नहीं कर पायीं जो इन्होंने अन्य सभ्यताओं के साथ ५० से २०० वर्षों के अपने दमनकारी शासन द्वारा कर दिया। अवश्य ही आर्थिक रूप से भारत निम्न स्तर पर गया परंतु उसने अपनी सनातन पहचान को नहीं मिटने दिया। उसके बाद आया वह समय जिसने भारतीय मानस को सर्वाधिक प्रभावित किया और यह कहें कि भारतीय दृष्टि को क्षीण करने तथा क्रमशः समाप्त करने की नींव रखी। यह समय था सन १९४७ जब भारत से अंग्रेज गये और वह भी भारत का विभाजन करने के उपरान्त। एक सोच को पाकिस्तान मिल गया और दूसरी सोच जो शासक बनकर भारत में उभरी, वह भारत के मूल से पूर्णरूपेण अनभिज्ञ और ये कहें कि घृणा भाव रखने वाली तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारत का नया इतिहास भारत के बाहर या बाहरी सोच द्वारा लिखा जाने लगा और भारत के वास्तविक इतिहास को ‘मिथोलोजी’ कहकर प्रचारित किया जाने लगा और आज स्तिथि यह है कि स्कूल से लेकर प्रशासनिक सेवा की पुस्तकें इसी नव-इतिहास से भरी पड़ी हैं। आप दो भारतीयों को ही आपस में लड़ते पाएँगे अपने इतिहास को लेकर। भारतीय मानस को भ्रमित करने का जितना प्रयास पिछले ७ दशकों में हुआ, उतना १००० वर्ष भी नहीं कर पाये। इसमें प्रयोग किया गया आधुनिक तकनीकी का। पाठ्य पुस्तकों, मीडिया से लेकर सिनेमा तक सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास किये गये कि कैंसे भारतीय को और सब कर दिया जाय पर भारतीय मूल से जुड़ा न रहने दिया जाय और इस हेतु उसमें अपनी पहचान को लेकर हीन भाव डालना अति आवश्यक था।

कृपया यह सूचित हो कि इस लेख का विषय इतिहास नहीं है। भूमिका मात्र आने वाले भागों में विषय को समझाने के लिये दी गयी है।
इसके अग्रिम भाग में मैं उदाहरणों के साथ आपके समक्ष अपना अध्ययन रखूँगा जिससे पाठक स्वयम् तुलनात्मक अध्ययन कर सकें।
प्रथम उदाहरण: witch hunting के समकक्ष भारतीय मानस में सती प्रथा का झूठ स्थापित करना और उसको हटाने में लॉर्ड विलीयम वेंटिंग का महिमामण्डन।

क्रमशः-

विजय गौड़

विजय की बुद्धिजीविता: आलेख ३

क्या भारत में एक सँस्था को ‘हलाल पंजीकरण’ का अधिकार देना व्यवसाय की स्वतंत्रता के नियमों का उल्लंघन और किसी समुदाय विशेष का तुष्टिकरण नहीं है?
मेरा बाल्यकाल की शिक्षाओं में एक प्रमुख शिक्षा थी ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’। इस पंक्ति का प्रभाव मुझ पर इतना हुआ कि मेरा मानस उस प्रत्येक व्यक्ति को शंकित दृष्टि से देखता जो दूसरे मत वालों पर कुछ भी मेरी मान्यता के प्रतिकूल टिप्पणी करता। मैं सोचने लगता कि अवश्य ही ये लोग वैमनस्यग्रस्त लोग हैं। मेरी सोच को और अधिक शक्ति मिलती ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख ईसाई। आपस में हैं भाई-२’ जैंसे सुंदर शब्दों/नारों से। शनैः-२ जीवन यात्रा आगे बढ़ती गयी और बॉलीवुड की फिल्मों से परिचय भी होना आरंभ हुआ। उस से पता चलता कि मौलाना जी कितने सरल और सबका कल्याण सोचने वाले होते हैं। स्मरण करें शोले फिल्म के ए के हंगल, वे मेरे मानस में मौलाना की प्रतिमूर्ति थे। मुझे ये लगता कि वे भी मेरी बूँगी देवी के मंदिर में आरती करवाने वाले बोड़ा जी (पुजारी) जैंसे ही थे और ऐंसे ही सब होते होंगे मौलाना/मौलवी लोग। साथ ही साथ सूचना का दूसरा मुख्य श्रोत बना टेलिविज़न समाचार। एनडीटीवी और आजतक। इन माध्यमों से निरंतर जिस प्रकार हिंदू प्रतीकों (भगवा,तिलक आदि) को प्रयोग करने वाले लोगों को दिखाया जाता (स्मरण करें राम मंदिर से जुड़े विषयों पर इनका प्रसारण, वैलेंटायन डे पर विरोध करते युवाओं का चित्रांकन, इतिहास के नाम पर झूठ दिखाती फिल्मों का विरोध करते लोगों का चित्रांकन) उस से मेरा मानस एक दूसरा ही रूप ले चुका था। इस मानस के साथ आया मैं भारत से अमेरिका। अब जीवन में कुछ समय मिलना आरंभ हुआ तो अपना स्वाध्याय करना आरंभ किया। पहली ही पुस्तक जिस से मेरी अध्ययन की मृग तृष्णा और बढ़ने लगी, वह थी श्री राजीव मल्होत्रा की Breaking India. इसके उपरान्त मेरी स्वयम् की दृष्टि में बड़ा अंतर आया। एक सरल स्वभाव जो बाल्यकाल से मिला था वह अब बातों को सही संदर्भ के साथ देखना आरंभ कर रहा था, लोगों की बातों को विश्लेषण के बाद ही सत्य मानना सीख रहा था।उसके बाद पढ़ी राजीव जी की ही दूसरी कृति ‘Being Different’ और इस पुस्तक ने मुझे अपने बचपन का विश्वास पुनः दिया जो बचपन राम लीलाओं के साथ बड़ा हुआ और उसे भारत का Grand narrative समझता और मेरा मानना है कि वही है भी। परंतु २० से ४० की आयु में जो भी पढ़ा-देखा, उस से जो एक ही दृष्टि से विषयों को देखने की छद्म (पॉप, pop) बुद्धिजीविता उत्पन्न हुयी थी, उससे शुद्धि का अनुभव जँहा स्वयम् के स्तर पर सुंदर है, सामाजिक (मुख्यतः Twitter, Facebook जैंसे पटलों पर) स्तर पर उसने मुझे अब ‘वाम’से ‘दक्षिण’कर दिया है। मूल रूप से मैं तब भी भारतीय था और आज भी (bharatiya lense is neither left nor right. left & right is something again a western construct which Indian intelligencia is using to study Indian hindu society which is not abrahmic in nature)।

अब आते हैं इस आलेख के मुख्य विषय पर जिसके कारण ये भूमिका देनी पड़ी। ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई। आपस में हैं भाई-२’ जो वैज्ञानिक (gene study) और ऐतिहासिक सत्य भी है कि समस्त भारत मूल रूप से सनातन हिंदू ही है। ये जो आज जॉन और तैमूर हो रखे हैं वो भी रामलाल और श्यामलाल जी की वंशावली से ही हैं। इसे ही मूल मानकर इसकी व्याख्या करते हैं। यदि भारत की राज सत्ता भी यह मानती है तो भाई-२ अलग कैंसे? कुछ भाइयों को ये आवश्यकता क्यूँ पड़ रही है कि वे अपनी वंशावली अरब में ढूँढ रहे हैं? हमें तो ये बताया गया कि ऐंसी सोच रखने वाले पाकिस्तान हो गये, क्या ये असत्य था? यदि हमारे प्रथम प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री भाईचारा और गंगा जमुनी तहजीब के प्रणेता थे तो उन्हें इसकी आवश्यकता ही क्यूँ पड़ी? दो भाइयों में तो भाईचारा स्वतः ही होता है, नहीं? मेरे माता-पिता ने तो मुझे कभी नहीं सिखाया कि अपने भाई-बहनों से प्रेम भाव रखो, ये तो नैसर्गिक हो गया। यही आपके साथ भी है ना? तो यह बनावटी बातें क्यूँ करनी पड़ी? क्या इसके मूल में ही कुछ विरोधाभास तो नहीं? क्या ऐंसा तो नहीं कि इनमें से दो भाईओं (मुस्लिम-ईसाई) का मूल कँही और है? वे अपनी प्रेरणा किसी दूसरे सिद्धांत से तो नहीं लेते? यदि ‘हाँ’ तो उस पर चर्चा करना अपराध क्यूँ? जब वे अलगाव का भाव रखते हैं तभी ‘हलाल पंजीकरण’ की आवश्यकता हुई ना? ये तो उचित नहीं ना कि एक भाई तो इतना ‘सेक्युलर’ कि वो अपना प्रेम दिखाने के लिये हलाल विधि से मारे गये पशु (वह पशु जिसे उसकी संस्कृति में मातु तुल्य इसलिये माना जाता है क्यूँकि वह उनकी अर्थ व्यवस्था का मूल रही है) के माँस वाले ‘टूंडे कबाब’ भी खा ले और दूसरा ‘झटका’ खाना ‘हराम’ समझे? ये तो हुई नैतिकता की बात। चलिये अब आते हैं अधिकार (rights) पर जो कि आज की पीढ़ी का ‘new cool’ है। सुना होगा आपने, ‘bro my body, my right’। वैंसे भारतीय दृष्टि अधिकार और कर्तव्य के सामंजस्य पर आधारित है, कदाचित कर्तव्य की ओर तुला कुछ अधिक झुकी है तभी तो आज भी भारतीय माता-पिता बच्चों की शिक्षा और विवाह तक के लिये धनार्जन करता है (हाँ ‘my body, my right’ संस्कृति की प्रवृत्ति इसके विपरीत है)। अधिकार तो सबको समान होना चाहिये ना यदि लोकतंत्र और न्याय आधारित व्यवस्था है तो। फिर ये ‘पर्सनल लॉ बोर्ड’ जैंसी संस्थाएँ पंजीकरण कर कैंसे पैंसे ले रही हैं? यह कार्य सरकारी सँस्था क्यूँ नहीं कर रही जिस से इस से अर्जित धन पूरे राष्ट्र के लिये प्रयोग हो।एक भाई के लिये ये विशेष सुविधा क्यूँ? दूसरे भाई के तो पूजा स्थान का पैंसा भी आप इसी भाई के कल्याण हेतु बनायी स्कीमों में लगा रहे हैं, नहीं? (Hindu temples are still government administered right?)। एक भाई का परिवार न्यायालय में हिंदू मंदिर (सबरीमाला) में उन्हें न आने देने में ‘न्याय’ हेतु जा सकता है और ‘फ्री मीडिया’ पर पूरा सहयोग ‘प्राइम टाइम शो’ के माध्यमों से पाता है तो दूसरी ओर वही ‘लोकतंत्र’ का स्तंभ ‘न्यायालय’ दूसरे भाई के परिवार की ‘न्याय याचिका’ जिसमें वह परिवार की मुख्य धुरी (महिला) को मस्जिद में पुरुषों के साथ नमाज पढ़ने की आज्ञा दिये जाने हेतु जाता है, तो उन्हें ये कहकर लौटा दिया जाता है कि ‘आप उस से प्रभावित नहीं होते’ (you are not a party)। ये कैंसा महिला सशक्तिकरण (feminism) है जँहा एक समुदाय की महिला के लिये साथ में पूजा का अधिकार न होना ‘cool’ और सुंदर परम्परा है और दूसरे भाई के परिवार की महिला का मात्र एक पूजा स्थान में प्रवेश वर्जित होना, सामाजिक कुरीति/पिछड़ापन है जिसे हटाने हेतु टेलिविज़न स्टूडीओ से अनेकों राजा राम मोहन रॉय, विलीयम वेंटिंग से इसे हटाने हेतु पुरजोर अनुग्रह करते प्रतीत हो रहे हैं। हो सकता है आने वाली पीढ़ियाँ इन समाज सुधारकों का नाम भी इतिहास की पुस्तकों में पढ़ें (आज की इतिहास की पुस्तकों में सती प्रथा नाम की मिथ्या को राम मोहन राय और वेंटिंग द्वारा हटाया गया) कि सबरीमाला की कुरीति पर रोक इन महानुभावों ने लगवाकर महिला सशक्तिकरण को नई ऊँचाइयाँ दी और दूसरे परिवार की महिला उस समय भी ‘निकाह हलाला’ जैंसी ‘cool’ परम्पराओं का श्रद्धा से निर्वहन ही कर रही हों।

कैंसे एक छोटे से ठेले पर फल बेच रहे विक्रेता का स्वयम् को ‘हिंदू’ फल विक्रेता कहना और एक पंजीकृत सँस्था द्वारा समर्थित बताना अपराध है? यदि दूसरी कुछ वैसी ही सँस्था ‘हलाल पंजीकरण’ तक दे सकती है? क्या यह एक भाई का ‘सशक्तिकरण’ और दूसरे के प्रति ‘अन्याय’ नहीं है? क्या यह एक लोकतांत्रिक देश में एक समुदाय विशेष को एक समानांतर अर्थव्यवस्था (parellel economy) स्थापित करने की न्यायिक अनुमति नहीं है? और दूसरे को उसके प्रतीकों का प्रयोग करना भी राज्य व्यवस्था द्वारा दंडनीय है। क्या लोकतंत्र में यह होना चाहिये कि कुछ लोग तो मजहब पहनकर पूरे देश में गौरव से भ्रमण करें और सड़कों पर यातायात रोकना तक जन्मसिद्ध अधिकार समझें और दूसरे अपनी पहचान बताने में पहले तो संकोच करें (आधुनिक/सेक्युलर हिंदू परिवारों में भगवा रंग, कलावा, टीका आदि अब uncool है और शेष के मानस में इसे ‘hindu terror’ के रूप में बिठाया जा रहा है) और जो थोड़ा भी प्रदर्शन करे उसे या तो राज्य व्यवस्था बलपूर्वक स्वयम् हटवा दे या कुछ का भीड़ द्वारा वीभत्स अंत भी करवा दे?
ये कुछ यक्ष प्रश्न हैं जिन पर समाज को सोचना आवश्यक है। लेख द्वारा मैं किसी की भावना को आहत नहीं करना चाहता अपितु अपनी प्रश्न करने की पौराणिक सनातन परम्परा का निर्वाह कर रहा हूँ। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मेरा भी अधिकार है, यध्यपि मैं यह लेख अपने कर्तव्य भाव से लिख रहा हूँ। यह कृष्ण-अर्जुन युग से आदि शंकराचार्य से होती हुयी स्वामी विवेकानंद द्वारा मुझ तक पहुँची है और इसी प्रकार आगे बढ़ती रहेगी। मैं पाठकों को भी प्रश्नों हेतु आमंत्रित करता हूँ।
इति समाप्तम। ॐ।
विजय गौड़
कैलीफ़ोरनिया, अमेरिका

मुनव्वर को जवाब!!

यूँ तो अब मैंने शायरी छोड़ दी है लेकिन आज लिखना ज़रूरी हो गया। ये ‘बड़ी शख़्सियत’ मुनव्वर’ राणा कुछ ऐंसा कह गये जिसका उनकी ही ज़ुबान में ज़वाब देना लाज़मी है, वक़्त की फ़रमाइश है। जब तलक ये अपनी सियासत पर ही बयानबाज़ी/शायरी करते थे, तब तलक कुछ कहना ठीक नहीं था, अब इन्होंने दावत दी है तो ‘शुक्रिया’ तो कहना ही होगा। ये लीजिये हमारा भी ‘शुक्रिया’।
मुनव्वर!! ये नफ़रतों के बाज़ार मत बेचों,
जँहा हाथ थामने की ज़रूरत हो,
वँहा क़त्ल के औज़ार मत बेचो

जिस महफ़िल में कुछ दिन पहले ‘माँ’ बेचा करते थे,
अब उसी में ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का अख़बार मत बेचो।

अच्छा नहीं ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ की नींव का नम होना,
इसके लिये ‘संबित’ है गुनहगार, मत बेचो।

तुम तो ‘भाईचारे’ की चलती-फिरती मिसाल थे?
अब ये ३५ करोड़ ‘भाई’ और १०० करोड़ ‘चारे’ का संसार मत बेचो।

ये ‘कोरोना’ सरकार नहीं है जो ‘वोट’ समझे,
इसलिये ये अपना ‘मजहबी’ बुख़ार मत बेचो।

हमने देखा है ‘तराना ए हिंद’ को ‘तराना ए मिल्ली’ बनते,
अब तुम भी ‘सरज़मीं ए हिंद’ में वो ‘इकबाली हथियार’ मत बेचो।
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@विजय गौड़
१४/०५/२०२०