जाणू कख छै, बतौ त लोला?
किलै कान्धम, धर्युं स्यु झोला?
उंदार कब तैं लग्युं रैलि?
क्वी त बोला, अब ड्यार हि रौंला।।
जब तलक तू छै लचार,
ऐ नि कबि जाणों विचार,
अब पैढी-ल्येखि ऐ कुच कनों बगत,
त छोड़ी जाणि छै यु घौर-मुलुक,
सबि उन्द हि चलि जैल्या,
त यिख कु रालु? बोला?
जाणू कख छै .........................
गूणी-बान्दरोन भरीं छन सार,
कूड़ी उजिडिक छन हुयीं उड्यार,
घ्यू-दूध अब मोल हि मुल्याणन,
छन्नि, गोर-बखरों खुज्याँणन,
रीत-रिवाज पाणी सि बिसगणा,
जख गै होला वु सब म्येला-खौला,
जाणू कख छै .........................
पहाड्यों म हि नि अब पहाडै अन्वार,
पछ्याँण मिटोणे कि य कनि मारामार?
जू जख जाणू, उखा कि हवे जाणू,
पहाडै, पहाड़ी अब क्वी नि बच्याणु,
भासा-संस्कृति कि नि छै खैरि,
पण पैनुणु नि क्वि पहाड़ी चोला,
जाणू कख छै .........................
रचना : विजय गौड़ (०५।०६।२०१३)
कविता संग्रह"रैबार" से।