Wednesday 22 July 2020

विजय की बुद्धिजीविता: आलेख ४


क्या अल्लामा इक़बाल का 'सारे जँहा से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा'  "दारुल हर्ब" के लिये लिखा काव्य नहीं था?: विजय गौड़ द्वारा एक पूर्वपक्ष 

आज संध्याकाल में मैंने 'जयपुर डायलाग' नामक एक यूट्यूब चैनल (जिसका मैं नियमित श्रोता/दर्शक हूँ) का संपादन करने वाले श्री संजय दीक्षित जी का आज का विडिओ देखा जिसमें उन्होंने 'कश्मीरियत' पर अपना विमर्श रखा है (लिंक साझा भी कर रहा हूँ) जोकि पूर्ण रूपेण तथ्य आधारित विश्लेषण है। उसके उपरान्त मैंने आवश्यक समझा कि इसी से मिलता-जुलता विमर्श मैं भी मो० इकबाल के उदाहरण के साथ सबके सम्मुख रखूँ।   
मो० इक़बाल जिनको कि अल्लामा इक़बाल के नाम से भी जाना जाता है को भले ही आज का भारतीय युवा नाम से न जानता हो परन्तु उनके काव्य "सारे जँहा से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा" को अवश्य ही जानता है। भारत की 'सेक्युलर' राज्य सत्ता द्वारा स्थापित स्कूल व्यवस्था में यह 'समूह गीत' के रूप मेरे अध्ययन काल में प्रतिदिन गाया जाता था (मुझे पूर्ण विश्वास है कि आज भी बच्चों से गवाया जाता होगा) और यदि आप अरबी/पारसी युक्त हिंदी में पारंगत हैं तो इस काव्य को पढ़/सुनकर गौरव की अनुभूति भी अवश्य करेंगे और मेरा मानना है कि करनी भी चाहिये। यह जो नैरेटिव है इसे तो सिनेमा या स्कूली शिक्षण प्रणाली के माध्यम से बड़े वृहद् रूप में आगे बढ़ाया गया परन्तु क्या यह आवश्यक नहीं कि इन्हीं इक़बाल की लिखी 'तराना ए मिल्ली' के बारे में आम जनमानस को बताया जाता? क्या यह प्रत्येक नागरिक का अधिकार नहीं है कि उसे पूरी सूचना दी जाय न कि मात्र महिमामण्डन वाली? क्या इस प्रकार के नैरेटिव का कुछ विशेष उद्देश्य था? क्या आज की पाठ्यपुस्तकों में कहीं यह सूचना दी जाती है कि मो० इक़बाल के साहित्य की भूमिका भारत विभाजन में क्या थी?  शिक्षण व्यवस्था का उद्देश्य विद्यार्थियों में उनके स्वयं के चिंतन, सत्य-असत्य के विवेक का विकास करना होना चाहिये न कि एक ओर की ही सूचना देकर उनकी सोच को संकुचित करना।  

मो० इक़बाल को पाकिस्तान का 'राष्ट्रकवि' और 'स्पिरिचुअल फादर' माना जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं कि 'दो कौमी नजरिया' या 'Two Nation Theory' के नाम पर भारत को विभाजित करने वाले जिन्ना उनके शिष्य थे। (उनके विकिपीडिआ पेज पर भी जिन्नाह को उनके दर्शन को मानने वालों में बताया गया है) अतः वे इस्लाम की 'दारुल इस्लाम' (इस्लामिक स्टेट, state ruled by Islamic Sharia law) और 'दारुल हर्ब' (State which is not under Islamic law) की रूपरेखा को भलीभाँति समझने वाले ज्ञानी इंसान थे। 'दारुल हर्ब' के लिए कुछ विशेष 'code of conduct' (व्यवहार में प्रयोग की जाने वाली नियमावली) भी इस्लामिक मनीषियों द्वारा दिये गये हैं और उसमें मुख्य है कि उन्हें एक विशेष रणनीति 'स्टेट ऑफ़ वार' में रहते हुये इस्लाम के विस्तार हेतु कार्य करना है।श्री संजय जी ने इसका सुन्दर विश्लेषण किया है। इन बिंदुओं की पूर्ण विवेचना के उपरान्त ऐंसा प्रतीत होता है कि मो० इक़बाल की यह कविता (तराना ए हिंद) 'सारे जँहा से अच्छा' एक 'बुद्धिजीविता युद्ध' को ध्यान में रखते हुए लिखी गयी थी जिसका उद्देश्य भारतीय समाज (दारुल हर्ब) को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर अपने दीर्घकालीन लक्ष्य (दारुल इस्लाम) को प्राप्त करना था। पाकिस्तान के लिये लिखा 'तराना ए मिल्ली ' मो० इक़बाल की इस्लामिक स्टेट (मुस्लिम भाईचारा, मुस्लिम ब्रदरहुड ) की स्पष्टता का धोतक है जिसमें वे स्पष्ट रूप से पूरे विश्व को 'इस्लामिक स्टेट' बनाने की बात करते हैं।  

चीनो-अरब हमारा, हिन्दोस्ताँ हमारा। 
मुस्लिम हैं हम वतन हैं सारा जँहा हमारा।।

उनके लेखों से यह भी स्पष्ट है कि यह भाईचारा वह शाँति मार्ग द्वारा स्थापित करने की बात नहीं करते। अपनी ही कविता 'शिकवा' में वे अपने अल्लाह के लिए यह लिखते हैं : -

तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा। 
कुव्वत-ए-बाजु-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरा।।

उनकी इन पँक्तियों से स्पष्ट होता है कि उनकी मान्यता के अनुसार इस्लाम जनमानस के ऊपर बाहुबल का प्रयोग कर थोपा जाना उचित है। क्या यह महिमामण्डन एक सभ्य समाज के लिये सही है? आगे इसी में वे तलवार के बल पर पाई हुयी राजसत्ता का समर्थन करते हुए दिखते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे इस्लाम के विस्तार के लिये अपनाये गये हिंसा के मार्ग का समर्थन करते हैं: -

पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने। 
काट कर रख दिये कुफ्फार के लश्कर किसने।।

वे इस्लाम के पतन को लेकर दुःखी भी दिखते हैं परन्तु उनके शब्द चयन से आप स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि इसके पीछे की सोच कौन सी है। 

कहर तो ये है है कि काफिर को मिले हूर-ओ-क़ुसूरल। 
और बेचारे मुसलमान को फ़क़त वादा ए हूर।।

समय-२ पर उनके कुफ्फार/काफिर शब्दों के प्रयोग से उनकी 'अपने लोग और अन्य' वाली सोच भी स्पष्ट होती है। 

इसी रणनीति का प्रयोग 'तथाकथित हिंदी सिनेमा' जोकि वस्तुतः उर्दू सिनेमा है, भी करता आया है यह आप उनकी फिल्मों के बदलते स्वरुप (१९४७ से लेकर वर्तमान तक) से भी समझ सकते हैं। इसका विश्लेषण आने वाले समय में अन्य लेखों द्वारा आपके सम्मुख रखूँगा। 


नोट: 
१) लेख का ध्येय किसी मत/पँथ की मान्यताओं का असम्मान कदापि नहीं है। शब्द मात्र विश्लेषण हेतु लिये गये हैं। यह लेख मात्र मेरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग कर जनसामान्य के साथ चर्चा हेतु लिखा गया है। 

२) मैंने संजय जी के नाम के आगे सम्मान स्वरूप 'श्री' शब्द का प्रयोग किया है परन्तु मो० इकबाल के नाम के आगे इसका  प्रयोग नहीं किया है क्यूँकि 'श्री' शब्द हिन्दू सँस्कृति से आता है और वर्तमान में इस पर आपत्ति भी हो सकती है, भावनाएँ आहत भी हो सकती हैं। 'श्री' न लगाने से मेरा आशय उनका असम्मान करने से नहीं है। यह भी ज्ञात हो कि इक़बाल स्वयं कश्मीरी हिन्दू परिवार से थे और उनका अरबी/पारसी/तुर्क इस्लामिक वंशावली से कोई संबध नहीं था। 

आलेख: 
विजय कुमार गौड़ 
दिनाँक: २२ जुलाई, २०२० 
स्थान: कैलीफॉरनिया, अमेरिका