रात
गै,
अर
दगड़मा राति कि, वा बात
बि गै ।
भौत
ह्वै ग्ये, खैरि कि रुवा रो,
चला,
अब सुख का वु हरच्याँ, बाटा खुज्योंला ।
दगिड्यो, अग्नै कि छ्वीं लगौन्ला ।।
देरादूण, गैरसैण,
तु
गढ़वली, मि कुमैंण ।
'बा' अर 'ख' मा ढोलदि माटु,
छुचों, खैरिन याँन नि मिटेंण,
आवा, जरा सबि दगड़म सोचा,
इन्नि अपड़ी-अपड़ी कब तलक गौंला?
आवा, जरा सबि दगड़म सोचा,
इन्नि अपड़ी-अपड़ी कब तलक गौंला?
दगिड्यो, अग्नै कि छ्वीं लगौन्ला ।।
तु दिल्लि वलु, मि गौं वलु,
तु
गाड़ि वलु, मि खुटों वलु,
घार-बूँण सच्यूँ भौत ह्वै ग्ये,
हमखुणि कन्ना कु क्य ई रै ग्ये?
टाँग खैंचणु छोड़ि जरा सोचदि कुच यनु,
घार-बूँण सच्यूँ भौत ह्वै ग्ये,
हमखुणि कन्ना कु क्य ई रै ग्ये?
टाँग खैंचणु छोड़ि जरा सोचदि कुच यनु,
जु
भोल फेर दिल्लीउन्द धक्का नि खौंला।
दगिड्यो, अग्नै कि छ्वीं लगौन्ला ।।
डाम
हि डाम, ये मुल्का हे राम,
विकास अद्दा कत्तर कु बि नि,
रौल्युं-२, बिनासौ ताम-झाम,
जरा युं डमदरों से पूछा त आज ,
चूंडी कि जूँगा अर खैंचि कि नौला ।
दगिड्यो, अग्नै कि छ्वीं लगौन्ला ।।
विकास अद्दा कत्तर कु बि नि,
रौल्युं-२, बिनासौ ताम-झाम,
जरा युं डमदरों से पूछा त आज ,
चूंडी कि जूँगा अर खैंचि कि नौला ।
दगिड्यो, अग्नै कि छ्वीं लगौन्ला ।।
सुख
हो या दुःख,
गिच्चा
सदनि बोतलि मुक ।
छ्वटु
बडु, क्वी नि विरयुं च
जैंथे
देखा, वी डाला टुक ।
लोलावो
अब पाणि मुण्डमात चलि ग्ये ,
बगत
बुनु अब बिटावो रै बौंला ।
दगिड्यो, अग्नै
कि छ्वीं लगौन्ला ।।
@ विजय गौड़
भारतीय समाज कि मन:स्तिथि पर १००० वर्ष कु जु गुलामी कु प्रकोप ह्वै, वाँका बाद जु आजै समाज कु मानस च वेकू प्रकटिकरण च यकविता जैकु शीर्षक च,” दगिडयो, अगनै कि छ्वीं लगौंला” हिंदी में कहूँ तो हे भारतभूमि अब समय आ गया है पुनः भारत होने का। येसमय ने जो परदे हमारे मानस पर डाल दिये हैं उन्हें हटाने का समय, उनके पीछे जो कारण हैं उन्हें समझने का और तत्पश्चात उनसे बाहरनिकलने का समय आ गया है। समय आ गया है कि भारतीय मानस एक स्पष्ट मानस (कृष्ण सा) को प्राप्त हो और संशयित (अर्जुन सा) स्तिथि से बाहर आये।