अभी-२ अरनब गोश्वामी की एक डिबेट देखी। उनका और उनके कुछ दक्षिण भारतीय मित्रों का कहना है कि हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में नहीं बढ़ावा दिया जाना चाहिये। अंग्रेज़ी जो कि एक विदेशी भाषा है, उस पर एक भी सवाल नहीं और अपने ही देश की एक भाषा का इतना विरोध?? अंग्रेज़ी हमारी पहचान कैसे हो सकती है? संस्कृत ही सभी भारतीय भाषाओं की जननी रही है और एक तरह से हमारी पहचान भी। लेकिन अपनी पहचान को बढ़ावा नहीं और अंगरेजियत पर गौरव??
दक्षिण भारत को छोड़कर बाक़ी भी तो हिस्से हैं देश के वहाँ से तो इतना विरोध कभी नहीं आता। जब भी देश में किसी एक भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में आगे किया जाय, इनके पेट मे दर्द शुरु। मेरी भी अपनी दुधबोलि गढ़वाली है, मेरे लिये भी हिंदी एक अलग भाषा है लेकिन यदि वो मेरे देश को एकत्व देती है, एक राष्ट्र करने में सफल होती है तो फिर विरोध क्यों? अरनव की टी आर पी कम हो जायेगी लगता है अगर अधिक लोग हिंदी बोलने वाले हो गये तो। बुरा क्या है अगर एक अपने देश की भाषा में से कोई राष्ट्र भाषा हो जाय तो? मुख्य भाषा हमारी संस्कृत रही है, धीरे-२ हिंदी में अधिक से अधिक संस्कृत के शब्द समाहित किये जा सकते हैं। ये विरोध अंग्रेज़ी का क्यों नहीं होता दक्षिण भारत में ये बात मेरी समझ नहीं आती? अपने ही राष्ट्र की दूसरी भाषा से इतना बैर, तभी हम आज़ भी मानसिक ग़ुलाम हैं। ७० साल की आज़ादी के बाद देश इस हालत में नहीं पहुँच पाया कि हमें अंग्रेज़ी पर इतना आश्रित न रहना पड़े। जापान का उदाहरण ले, उनके कितने लोग दूसरे देशों में पलायन करते हैं दो वक़्त की रोटी के लिये? उनका कितना अंग्रेज़ीयत पर ज़ोर है? मेरा विरोध अंग्रेज़ी भाषा से नहीं इस अंग्रेज़ीयत वाली सोच से है जो अपने देश को दूसरों से नीचे देखती है। दूसरे देश की भाषा को ब्रिज लैंग्विज बना लेती है और अपने देश की ही एक और भाषा को ज़रा भी सहन नहीं कर सकती।
हम ऐँसे ही बँटे रहेंगे और दूसरों की भाषा बोलकर अपने ही देश को, अपनी पहचान को नीचा दिखाते रहेंगे। कल फिर कोई गजनी या गौरी या ईस्ट इंडिया कम्पनी आकर हम पर राज करेगी और उनका विरोध हम कभी नहीं कर पायेंगे। बनते हैं हम नैशनलिस्ट चैनल और बात दोगली। #pseudonationalist.