Saturday 3 October 2020

विजय की बुद्धिजीविता आलेख श्रृंखला: भारतीय राजनीति निरँतर धनानंद उत्पन्न करती रही परन्तु समाज आचार्य विष्णुगुप्त नहीं दे पाया, इसके कारण क्या हैं?

भारतवर्ष को 'तथाकथित स्वतंत्रता' मिले ७० से अधिक वर्ष हो चुके हैं परन्तु यह शताब्दियों पुरानी सभ्यता वाला राष्ट्र आज भी मानसिक रूप से स्वतंत्र हो पाया है, इस पर यदि चिंतन करें तो अत्यधिक विरोधाभास पायेंगे। स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि १९४७ में खण्डित किये जाने के बाद सत्ता हस्ताँतरण (transfer of power) के माध्यम से उत्पन्न  तथाकथित 'मॉडर्न इंडिया' आज भी 'भारत' से स्वयँ को नहीं जोड़ पाया है। क्या यह 'संबिधान' के नाम पर जो एक पुस्तक जिसका मूल स्वभाव ही अब्राहमिक है (सनातन सभ्यता में यह एक 'किताब' की संकल्पना है ही नहीं, इसकी प्रवृत्ति तो निरंतर प्रवाह वाली नदी सी है कि जैंसे ही प्रवाह में व्यवधान आने से दुर्गन्ध उत्पन्न होना आरम्भ हुयी, यह अपनी नयी दिशा ले ले परन्तु मूल को सदैव जीवित रखते हुये), को जनसामान्य से सम्पूर्ण चर्चा के बाद इसका स्वरुप दिया गया या बहुत से अन्य देशों के संबिधानों को मिलाकर कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा सा इसे इस राष्ट्र पर थोप दिया गया? प्रतीत तो ऐंसा ही होता है क्यूँकि जनमानस में यह डाला जाने लग गया कि आपके एक 'राष्ट्रपिता' हैं और उसके उपरान्त एक 'राष्ट्रचाचा' भी। ध्यान रहे कि सनातन समाज १००० वर्ष की परतंत्रता के बाद भले ही कुछ शक्ति अभाव में पहुँच चुका हो, उसका अनाज चाहे द्वितीय विश्व युद्ध लड़ने के लिए भेजकर 'अकाल' उत्पन्न कर दिया गया हो, परन्तु उसके बाद भी वह इस संकल्पना को स्वीकार करने में सहज नहीं हुआ क्यूंकि यह तो राष्ट्र को "माँ" मानने वाली सभ्यता थी, यँहा तो 'भारत माता की जय' का घोष चलता था। ऐंसे समुदाय को अचानक कहा जाय कि अब इस राष्ट्र में 'राष्ट्रपिता' पैदा हुये हैं तो असहजता होती ही। राष्ट्र को 'माँ' समझना भारत का साँस्कृतिक स्वभाव है जोकि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक/तार्किक आधार पर है क्यूँकि माँ ही वो है जो तुम्हें जनती है, धारण करती है अतः जिस धरा पर आपका जन्म हुआ वह 'माँ' स्वरुप ही होगी न कि पिता स्वरुप और यही सनातनी दृष्टि है। परिणाम यह हुआ कि विदेशी 'फादरलैंड' की अब्राहमिक संकल्पना वाले नवनिर्माण को आत्मसात करना कभी भी भारतीय मानस से  नहीं हो पाया। यही कारण है कि वर्तमान में भारत में चलाई जाने वाली  'Patriarchy' वाली पाश्चात्य बहस भारत में सफल नहीं हो पाती जबकि इसे भारतीय मानस और विशेषकर नयी पीढ़ी के मन में स्थापित करने के लिए अपार धन सम्पदा लगाई जाती है। 

साँस्कृतिक भारत और राजनैतिक भारत के बीच जो सेतु निर्माण का कार्य करती वह संकल्पना स्थापित ही नहीं की गयी बल्कि जिस प्रकार अंग्रेज सत्ता राज चला रही थी, उसे ही आगे घसीटा जाने लगा। मात्र अब श्वेत चेहरों के स्थान पर भारतीय रँग वाले चेहरे आ गये जिन्होंने पहनावा तो भारतीय रखा परन्तु आंतरिक स्वभाव वही अंग्रेजों वाला ही रहा। पहले अंग्रेज 'साहब' पीछे वाली सीट पर बैठते तो अब भारतीय साहब। 'साहबी' कभी गयी नहीं चाहे वह राजनीतिज्ञों की हो या नौकरशाही (Bureaucracy) की। 'कलेक्टर साहब' आज भी उन्हीं अंग्रेजों वाले Bungalow में सुशोभित हैं और उनका जनता के प्रति व्यवहार क्या है, वह सर्वविदित है। न राजनेता का जनता के साथ कोई अपनापन है न ही शेष स्टेट मशीनरी का। अपनापन शेष है तो मात्र सत्ता से, पैंसे से। जिसको जँहा अवसर मिलता है वंही लूट आरंभ। शिक्षा के नाम पर उन्हीं लुटेरों का महिमामंडन जिन्होंने इस राष्ट्र की सम्पदा को लूटकर अपनी 'औद्योगिक क्रांतियाँ' बनाई और दोष मढ़ा भारत की सामजिक स्थिति पर। 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' लिखी गयी जोकि पुनः पाश्चात्य संकल्पना आधारित, अब्राहमिक (चर्च) स्वभाव की। 

जँहा तक मेरी व्यक्तिगत मान्यता/अध्ययन है इसका प्रमुख कारण है सनातन समाज को मिथ्या आधुनिकता के नाम दी जाने वाली शिक्षा जिसका राष्ट्र की जड़ों से कोई जुड़ाव ही नहीं। गुरुकुल (हिन्दू संस्थाओँ के लिये) के लिये 'इंडियन स्टेट' ने भिन्न नियम बनाये जिससे उन्हें चलाना अत्यंत कठिन हो गया जबकि दूसरी ओर मिशनरी द्वारा चालित संस्थानों या मदरसों को यही सत्ता/संबिधान विशेष सुबिधाएँ देती रही और यह आज भी अनवरत जारी है। 'मिशनरी' को बढ़ावा 'आधुनिकीकरण' के नाम पर जबकि 'मदरसों' को अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर। इसके परिणाम ये हुए कि विश्व को नए-२ दर्शन देने वाली भारतभूमि आज सब कुछ पाश्चात्य जगत से लेने लगी और अपने मार्ग को भी उन्हीं 'आकाओं' द्वारा लिखी पुस्तकों से समझने लगी। वर्तमान में भारतीय राजनीति के लिए शब्द प्रयोग ही देख लें तो समझ पाएंगे कि भारत में भी "राइट विंग", "लेफ्टविंग","लिबरल" जैसे ही शब्द प्रचलन में हैं जबकि इनका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं। भारत में जिसे 'लेफ्ट' कहा जाता है वह वास्तव में राइट (कट्टरपंथी) है और जो 'राइट' है वह लेफ्ट। आज यदि आप भारत में इतिहास के नाम पर जो पाठ्य पुस्तकें एन सी आर टी पढ़ा रही है उन्हें पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे कि यह स्वयम से घृणा भाव कँहा से उत्पन्न हो रहा है। ऐंसे में जब तक समाज स्वयँ उत्तरदायित्व नहीं लेगा कि अपने मूल में जाये, उसे समझे और अपनी नयी पीढ़ी को बताये तब तक यह 'इंडियन स्टेट' ऐंसे ही भटके हुये मानस के युवा उत्पन्न करती रहेगी और उन्हें कोई भी धनानंद अपने राजनैतिक लाभ के लिये प्रयोग करता रहेगा। आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) पैदा करना तो दूर वे थे कौन इसका आभास भी यदि आज की पीढ़ी को आप करा दें तो यह एक नव आरंभ होगा। शेष तो सनातन का बीज उनके अन्दर है ही वह स्वयँ अपना मार्ग ढूंढ लेगा। आवश्यकता है तो उन्हें छद्म इतिहासकारों के लिखे इतिहास का सत्य प्रामाणिक रूप से बताने की और इसके लिये आपको स्वयं अध्ययन करना होगा। हमें बताना होगा उन्हें भारत की इतिहास परंपरा के बारे में, भारत गाथा के बारे में जिससे उनमें विश्लेषण की दृष्टि उत्पन्न हो और वे मात्र एक भीड़ न बनें, भारत तेरे टुकड़े होंगे को बोलना फैशनेबल न समझें। उनके बीच छद्म आवरण ओढ़े कितने कालनेमि, रावण, शकुनि, कंस हैं वे तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक उन्हें यह इतिहास बताया न जाय। आप प्रयास करें अवश्य पुनः भारत कृष्ण अवतरित करेगा। 

यदा-२ हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम। 
परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम,
धर्म सँस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।

वंदे मातरम्। 

विजय गौड़