Friday 29 March 2013

"चार लैन"

1. "कज्याण" 

त्येरि हो म्येरि, कज्येडीन कज्याण हि राण। 
तिथैं हो या मिथें, वीन कच्याँण हि राण।
भैर छै तु रपरुप्पु, पर भितिर जुप्पजुपु ह्वै जाण।
सर्या दुन्या मा कज्यों कि एकि दवै, कज्याण, कज्याण अर बस कज्याण।

2. "डल्ख्या झब्बु अर गोर"


झब्बु दा पौन्च्युं डाला टुक, अर सटम भौंटि टुटी ग्या,
अब खा रे डल्ख्या भिन्डी तू, जब सर्या चौन्ठी फुटी ग्या!! 
सर्या चौन्ठी फुटी ग्या, अर हड्गी-पसली हिली ग्या,
गोर नमान खुज्यान्द 
हि रैडल्ख्या झब्बु ख ग्या!! ग्यें कि ग्वैरि झब्बु कख ग्या!!

भिंडी देर!!!!(गढ़वली गजल)

कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु भिंडी देर,
वे रुन्दरा कु बि बगत औंण भोल सबेर।।

बस्ग्याल लग्युं च त पाणि सौन्ग्ये कि धैर,
सिन पाणिन नि बगणु भिन्डी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु ......

वीं तैं बाटा-घाटों मा बेर-२ दिख्येणु रै,  
कैन मन मा त्वै नि रखणु भिंडी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .......

कैकि गालि नि खौणि, कैतैं गालि नि दयेणि,
एक-हैंका कु बुरु नि सुचणु भिंडी देर।। 
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .........

भै-बन्दों मा छ्वटि-म्वटि बात त हूणी रंदन,
अपणों से सिन नि रुसौंण भिंडी देर।। 
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .........

रात स्वीणों मा बड़बड़ाणु छौ गबरू बोड़ा,
कखड़ी चुपचाप चोरा, कुकरन भुक्णु भिन्डी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु ............

विजय गौड़ 
२९/०३/२०१३