Tuesday, 23 July 2013

"ज़िन्दग्युं रैबार"

यीं कविता क माध्यम से म्येरि कोसिस च कि मनखि कु ज्योँन ज्व झणी कथ्गा हौर ज्योंन जीणों बाद मिलदा, वेथैं हम सबि हैन्सि-खेलि जीणों कोसिस कारा. म्येरि कविता मा म्येरा पहाड़ो सन्दर्भ नि ह्व़ा, यनु ह्वै नि सकदु, वेका बिना कविता पुरये हि नि सकदी त मिन अपणा भै-बन्दों सणी द्वी अंतरा आखिर मा जरुर लिख्याँन, बक्कि कविता उन सबि मनखि जात खुणि बि च. 

"ज़िन्दग्युं रैबार"

ज़िन्दगी वेन ज्युंणों दियीं, ज़िन्दगी ईं काटा ना,
अफु हैन्सा, हौरों हंसैल्या, अन्सधरि बाँटा ना।

जख लचारि तुम थैं आसन दयेख, 
जख टुटदि सांस बिस्वासन दयेख, 
विधातौ रैबार बिन्ग्याँ, हुयाँ छांटा ना,
अफु हैन्सा, हौरों हंसैल्या, अन्सधरि बाँटा ना ……… 

जब कैमा क्वी ऐब दिखेणु,
जब कै मन फरेब दिखेणु,
मुख अग्नै बुल्याँ, खुज्ययाँ चेला-चांठा ना,
अफु हैन्सा, हौरों हंसैल्या, अन्सधरि बाँटा ना ……… 

अब पाड़ मा क्वी रौंण नि चाणु,
जु उन्द ऐ ग्ये, उब जौंण नि चाणु,  
यिख सब्यों बजार चयेणा, डाँड-काण्ठा ना,
अफु हैन्सा, हौरों हंसैल्या, अन्सधरि बाँटा ना ……… 

जब तुम थैं क्वी अपडु नि बथाणु,
जब पाड़यों कु क्वी ठटा लग्वाणु,
वोटै चोट मारा, बण्या रा लाटा ना,   
अफु हैन्सा, हौरों हंसैल्या, अन्सधरि बाँटा ना ……… 


विजय गौड़ 
२४.०७.२०१३ 
कविता संग्रह: रैबार से 

Copyright @ Vijay Gaur 24/07/2013