श्रीराम की दृष्टि ही भारतीय दृष्टि है ! वर्तमान भारत को श्रीराम से उनकी दृष्टि सीखनी चाहिये
भारत जिसे तथाकथित आधुनिक 'इंडिया' कहते है, आज एक मानसिक स्तर पर देखा जाय तो विभाजित समाज है। यह विभाजन आप कई प्रकार से देख सकते हैं। प्रमुख रूप से क्षेत्र के आधार पर, भाषा के आधार पर, वर्ग के आधार पर, कास्ट (मैं यँहा जाति शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ) के आधार पर, आर्य-द्रविड़ के आधार पर, अँग्रेजी और भारतीय सोच के आधार पर, लेफ्ट और राइट (पाश्चात्य विचार) के आधार पर और भी पता नहीं क्या-२। इसका मुख्य कारण यदि आप जानने का प्रयास करें तो पायेंगे कि इसके मूल में भारत से भारतीय दृष्टि का समाप्त होना है। पिछले ७०-७२ वर्ष में भारत को 'मॉडर्न इंडिया' करने के प्रयास में भारत ने पाश्चात्य (अब्राहमिक) सोच को इतना समाहित कर लिया है कि वही आज इन विभाजनों का मुख्य कारण बन बैठी है। आज की भारतीय दृष्टि मूलतः एक 'बाइनरी लॉजिक' आधारित हो गयी है जोकि भारत का मूल नहीं है। यह सोच 'मैं' और 'दूसरा' (The Other), वाली अब्राहमिक सोच का परिणाम है जिससे आप पायेंगे कि समाज छोटी-२ बातों पर विघटित सा दिखता है और लोगों में येन केन प्रकारेण स्वयं को सही साबित करने की स्पर्धा सी लगी हुयी है। इसका उदाहरण आज आप मीडिया में होते संवादों में भी स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। पाश्चात्य संकल्पना वाले 'लोकतंत्र' के तथाकथित स्तंभों पर होती चर्चाओं का स्वरुप देखें तो पायेंगे कि उसके मूल में भी यही 'बाइनरी' सोच है कि मैं ही सही हूँ (मेरी ही मान्यता/belief सही, मेरा ही भगवान सबसे ऊपर और शेष झूठे भगवान और उसके बाद इन झूठे भगवानों को मानने वालों का अंत होना आवश्यक है इसलिये इन्हें मारा जाना न्यायसंगत/नीतिसंगत है)।
श्रीराम के जीवन चरित्र से आप पायेंगे कि उनमें इस प्रकार के सोच कदापि नहीं। वह संकल्पना पूर्ण रूपेण धार्मिक (रिलिजियस नहीं) है और उसका मूल 'धर्मसँगत कर्त्तव्य निर्वाह' है। धर्म का मूल भी 'कर्तव्य' आधारित है न कि अधिकार (राइट) आधारित। श्रीराम को जब उनके पिता द्वारा दिये गये वचनोँ के निर्वाह हेतु बनवास मिलता है तो वे अपना पुत्रधर्म समझकर उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। अधिकार की अवधारणा के आधार पर उन्हें कहना चाहिये था कि मैं तो बड़ा पुत्र हूँ और मुझे ही राजा बनना चाहिये लेकिन वह यँहा पिता के प्रति पुत्र कर्त्तव्य को प्रधानता देते हैं। साथ ही उनके मन में भरत के प्रति कोई दुराभाव नहीं होता।
दूसरा उदाहरण लँका काण्ड से लेते हैं जँहा रावण के समाप्त होने के बाद वे लँका को अपने राज्य का भाग नहीं बनाते अपितु विभीषण जोकि धर्म-परायणता (न्यायसँगतता) के प्रतीक हैं उन्हेँ राज्य देकर स्वयँ वापस अपने राज्य में आकर संतुष्ट भाव से राज करते हैं। यँहा यह भी उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व वे उनके द्वारा 'रावण वध' किये जाने के लिये प्रायश्चित करते हैं और वह इसलिये कि रावण का वर्ण (कास्ट नहीं) 'ब्राह्मण' था और उसका वध उन्होंने 'ज्ञान' के वध के रूप में, उस परंपरा (lineage) के वध के रूप में जिसमें रावण से पूर्व न जाने कितने धर्मपरायण ऋषि हो चुके थे, देखा, अतः प्रायश्चित करना उन्हें आवश्यक लगा। श्रीराम में एक राष्ट्रनायक के सभी गुण आप देख सकते हैं। विभीषण को उनके द्वारा राज्य संभालने का दायित्व दिया जाना इस बात की पुष्टि है कि उनकी दृष्टि 'धर्म-स्थापना' की थी न कि 'विस्तारवाद' जैंसे मिथ्या की स्थापना की। विभीषण ने एक धर्म प्रतीक बनकर ही लँका का शासन सँभाला जबकि थे तो रावण के अनुज ही। यह स्वभाव यह भी दर्शाता है कि वे रावण को एक व्यक्ति के रूप में देखते थे और 'परिवार' के प्रति उनका कोई दुराभाव नहीं था। उनका उद्देश्य मात्र 'न्याय आधारित राज्य' (Just State) स्थापित करना था। आज की भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जाय तो आज के अनेकों नेताओं के लिये इससे बड़ा सुनहरा अवसर क्या हो सकता था जँहा उन्हें पूरी 'स्वर्णमयी लँका' मिल रही थी। ये तो अपनी कई पीढ़ियाँ इससे सुरक्षित कर लेते परन्तु श्रीराम कहते हैं: -
अपि स्वर्णमयी लँका लक्ष्मण न मे रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि।।
ऐंसे श्रीराम का प्रतीक यदि आज के भारत में पुनः उनके जन्मस्थान पर न्यायसंगत रूप से बनना सुनिश्चित हुआ है तो इसमें पुनः वही 'बाइनरी' हिन्दू-मुसलमान डालकर उसके महत्व को निम्न दिखाने का संपूर्ण प्रयास इसी सोच के द्वारा किया जा रहा है। भारतीय समाज में उत्पन्न की गयी 'फाल्ट लाइन्स' जोकि इसी कुत्सित सोच द्वारा की गयी वह यँहा आग में घी का काम करती है। इसे दिखाया जाता है 'आर्य-द्रविड़' की दृष्टि से, 'हिन्दू-मुसलमान' की दृष्टि से, 'उत्तर-दक्षिण' की दृष्टि से, हिंदी भाषी (जोकि हिंदी है भी नहीं ७०% शब्द अरबी पारसी मूल के हैं) और शेष भारतीय भाषाओँ की दृष्टि से, हिन्दू पाकिस्तान की दृष्टि से। ये सारी दृष्टियाँ बड़ी बनायी गयी शिक्षा व्यवस्था, फिल्म, मीडिया आदि साधनों द्वारा और श्रीराम को अध्ययन किया जाने लगा पाश्चात्य दृष्टियों से और लिखने लगे शेल्डन पोलाक, वेंडी डोनिगर, देवदत्त पटनायक। प्रचारित करने लगे बरखा दत्त, राजदीप आदि। पुस्तकें लिखी गयी रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब आदि द्वारा जँहा श्रीराम सुबिधा के आधार पर एक काल्पनिक और वास्तविक व्यक्ति होते गए। भारत का वास्तविक इतिहास "माइथोलॉजी' बन गया और श्रीराम, श्रीकृष्ण इन मिथोलोजियों के नायक न कि भारतीय इतिहास के वास्तविक नायक। हर्ष का विषय यह है कि इंटरनेट जैसी इस विज्ञान की खोज ने इस 'बाइनरी' को समझने में आसानी कर दी है क्यूँकि अब सूचना मात्र कुछ सत्ताओं की ही पूँजी बनकर नहीं रही और उसके कारण सँवाद, प्रश्नोत्तर की पुरानी भारतीय परंपरा पुनः विश्व पटल पर केंद्र में आ चुकी है। 'मिथ्या' जिसे सत्ता के बल पर स्थापित किया गया, सोशल माध्यमों पर आम मनुष्य को इसकी सूचना उपलब्ध हो जाने से एक नव-क्राँति उत्पन्न हुयी है और इस कारण बदलाव स्पष्ट दिख रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था: -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भावार्थ : साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ
अपने लेख का अंत मैं इसी से करूँगा कि सूचना/ज्ञान का यह प्रकटीकरण श्री कृष्ण का ही प्रकटीकरण ही है और वह समय अब आ चुका है जब 'रामराज्य' (न्यायसँगत राज्य) की स्थापना अवश्य ही होगी। राज्य ऐंसा होगा जँहा 'प्रश्न' किये जा सकेँगे न कि ऐंसा माना जाने लगेगा कि रावण अमर है। अमृत यदि रावणों की नाभि में चला जाय तो उसे भी नष्ट होना होगा।
प्रणाम और जय श्रीराम!!
विजय गौड़
दिनाँक ०१/०८/२०२०