Saturday 1 August 2020

श्रीराम शृंखला आलेख १

जैंसे-२ श्रीराम मंदिर भूमि पूजन की तिथि समीप आ रही है आपको मीडिया में भिन्न-२ प्रकार की चर्चाएँ सुनने को मिल रही होंगी। इन्हीं चर्चाओं में आपको बहुत से ‘इस्लाम’ को मानने वाले बुद्धिजीवी ये कहते हुये भी सुनाई दे रहे होंगे कि राम तो ‘इमाम-ए-हिंद’ हैं और इस पर हिंदू/सनातनी समाज बड़ा प्रसन्न होते भी देखा जा सकता है। यह वही ‘सेक्युलरिज़म’ वाली शिक्षा की उपज है जँहा कहा जाता है की ‘सभी धर्म समान हैं’। यह वाक्य भी इतना ही असत्य है जितना गाँधी जी कृत ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’।
मुझे यह समझ नहीं आता कि आवश्यकता ही क्या है इस प्रकार के विमर्श की, इन प्रतिमानों की? राम भारतीय सभ्यता में एक राष्ट्र नायक हैं और जो भी लोग इस सभ्यता से स्वयम् को जोड़कर देखते हैं वे उन्हें उसी रूप में देख सकते हैं। आवश्यकता क्या है उन्हें ‘इमाम-ए-हिंद’ जैंसे शब्द देने की? Abrahmic मजहब की अवधारणा के आधार पर ‘अल्लाह’ उनका सर्वशक्तिमान है और वह मात्र एक है। अतः श्रीराम को इस सर्वशक्तिमान के समकक्ष रखना इस्लामिक अवधारणा के आधार पर ‘ईशनिंदा’ (blasphemy) होगी और ऐंसा कहने वाले को दंड दिया जाना चाहिये। फिर हिंदू समाज श्रीराम को ‘इमाम-ए-हिंद’ कहे जाने पर विरोध क्यूँ नहीं करता? क्या यह ‘ईशनिंदा’ नहीं है? यँहा यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि श्रीराम हिंदू मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु का अवतार हैं और ‘इमाम’ इस्लाम में प्रचलित रूप से मस्जिद में religious prayer करवाने वाले व्यक्ति/लीडर को कहा जाता है। अब बतायें कि श्रीराम को यह कहना उचित है?
भारतीय सनातन समाज को न केवल अपनी भाषा का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है अपितु दूसरी ओर ‘इस्लाम’ और क्रिस्चीऐनिटी’ जैंसी religion की अवधारणाओं का भी पूर्व पक्ष अत्यंत आवश्यक है नहीं तो वे इस अनावश्यक टी वी चर्चाओं में की गयी तुलना पर अपने अज्ञान के कारण मात्र ताली बजाते या प्रसन्न होते ही देखे जा सकते हैं और इसमें बहुत बड़ा योगदान भारतीय appeasement की राजनीति का है।
यँहा यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह ‘इमाम-ए-हिंद’ की उपाधि देने वाला प्रथम व्यक्ति भी मोहम्मद इक़बाल ही है जोकि पाकिस्तान के तराना-ए-मिल्ली का रचयिता है और इस्लाम का ज्ञाता भी। उसे पूर्ण रूप से पता था कि श्रीराम को ‘अल्लाह’ के समकक्ष वह इस्लाम के अनुसार नहीं कह सकता और उसे गाँधी जी जैंसे मिथ्या ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’ लिखने की आवश्यकता भी नहीं लगी होगी क्यूँकि उसे किसी का तुष्टिकरण नहीं करना था। उसने तुष्टिकरण किया (चालाकी से) लेकिन वँहा भी वह इस्लाम की मान्यता के विरुद्ध नहीं गया। आज भी हिंदू समाज इस ‘इमाम-ए-हिंद’ के मिथ्या से ग्रसित है।
धन्यवाद।

कॉपी राइट @विजय गौड़
दिनाँक: जुलाई ३१, २०२०

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