Monday 5 November 2018

श्री सुरेशानंद गौड़: प्रतिक्षण चुनौती से लड़ता व्यक्तित्व  

जन्म: जनवरी ०२, १९३८ (१० वीं कक्षा के प्रमाण पत्र अनुसार). कुंडली के अनुसार जून १९३६ में जन्म हुआ। 
जन्म स्थान: ग्राम बवाणी, पट्टी बूंगी, विकास खंड - नैनीडांडा, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड। 
पिता का नाम: श्री चन्द्रमणि जी गौड़ 
माता का नाम: श्रीमती शान्ति देवी जी गौड़ (औंलेथ कुकरेती परिवार से)
पारिवारिक सदस्य: दो बहनें। अग्रजा: श्रीमती गणेशी देवी (कांडी बिजलोट विवाहित), 
अनुजा: श्रीमती देवकी देवी (चैबाड़ा, ईडिया विवाहित)
पत्नी: श्रीमती देवी गौड़ (मैंदोला परिवार द्वारी, पट्टी पैनो से)
संतान: एक पुत्री एवं चार पुत्र। 
१. श्री विनोद गौड़ 
२. श्रीमती पुष्पा भदूला 
३. श्री संजय गौड़ 
४. श्री अजय गौड़ 
५. श्री विजय गौड़ 
अगली पीढ़ी में ५ परपौत्र एवं ५ परपौत्रियाँ। 
मृत्यु: २४ जुलाई, २०१३, दिल्ली में। 

प्रारम्भिक शिक्षा: आधारिक विद्यालय उमटा (घोड़कांद) 
१० वीं तक की शिक्षा: मथुरा दास प्रसादी लाल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय रामनगर, नैनीताल, उत्तराखण्ड। 
१२ वीं एवं उच्च शिक्षा: हिन्दू कॉलेज, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश। 
टिप्पणी: ज्ञात हो कि उनके शिक्षण कालखंड में उत्तराखण्ड एक अलग राज्य के रूप में स्थापित नहीं था, अपितु उत्तर प्रदेश का ही भाग था। 
स्नातकोत्तर शिक्षा: मास्टर इन आर्ट्स (अर्थशास्त्र), मास्टर इन आर्ट्स (अंग्रेजी), बी टी (शिक्षण में स्नातक, बैचलर्स इन टीचिंग)

पिता चंद्रमणि जी ब्रिटिश शासित भारत में पटवारी (बाद में अमीन) के रूप में कार्यरत थे और अधिकतर घर से दूर ही रहे। आपका विवाह मात्र १५ वर्ष की आयु (उस समय ७वीं कक्षा के विद्यार्थी थे) में १२ वर्षीय श्रीमती से संपन्न हुआ। 

शिक्षक के रूप में प्रथम नियुक्ति आधारिक विद्यालय अपोला, बिजलोट या ईड़िया (स्पष्ट करना है), पौड़ी गढ़वाल में हुई। पिता के एकमात्र पुत्र होने के कारण उनकी इच्छा थी कि आप उच्च शिक्षा के लिये न जाँय एवं अपने घर के आस पास ही आधारिक विद्यालयों में शिक्षण करते रहें। अंतर्मन में कदापि पिता को यह भी संशय था कि उच्च शिक्षा के कारण कहीं आप घर छोड़कर बाहर रहना न शुरू कर दें परन्तु आपके मन में कभी भी यह विचार नहीं था। अपनी जन्मभूमि से अगाध प्रेम होने के कारण जीवन पर्यन्त न केवल उसे छोड़ा नहीं वरन क्षेत्र में एक प्रेरणा बनकर आने वाली पीढ़ियों के लिये उदाहरण प्रस्तुत किया। सूचित हो कि उस समय गढ़वाल क्षेत्र ही नहीं सम्पूर्ण भारत वर्ष में उच्च शिक्षण भारतीयों के लिये सरल नहीं था। देश से अंग्रेजों को गए हुये कुछ ही वर्ष हुये थे और वे तत्कालीन भारत को विरासत में विभाजन एवं भुखमरी दे गए थे। इन विपरीत परिस्थितियों में भी आपने अपना शिक्षण जारी रखा। अर्थशास्त्र एवं अंग्रेजी भाषा में स्नातकोत्तर किया। आप जहाँ भाषा के रूप में अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ रखते थे परन्तु साथ ही साँस्कृतिक रूप से सम्पूर्ण रूप से भारतीय मूल्यों में रचे-बसे थे। 

सह-प्रधानाचार्य: राजकीय उच्चतम माध्यमिक विद्यालय, बढ़खेत, पैनो, पौड़ी गढ़वाल

उच्च शिक्षा का लाभ शीघ्र मिला और आप उच्चतम माध्यमिक विद्यालय बढ़खेत में मात्र २६ वर्ष की आयु में सह-प्रधानाचार्य  हो गये। अनुशाषित जीवन आपका मूल मंत्र रहा। कदापि ही ऐंसा कोई दिन रहा हो जब आपकी दिनचर्या प्रातः ५.३० बजे के बाद प्रारम्भ हुई हो। व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक जीवन में नैतिक मूल्यों को सदैव प्राथमिकता देने वाले गौड़ जी (प्रचलित नाम) व्यसनों से एक दूरी बनाकर रखते थे। इसका प्रभाव विद्यार्थियों एवं समाज ही नहीं अपितु उनके साथी अध्यापकों पर भी पड़ा। धूम्रपान एवं मदिरा पान यदि कोई करता भी था तो उनसे छिपकर ही, ये उनके जीवन मूल्यों का सम्मान ही था। वे स्वयं किसी  से इस सम्मान की अपेक्षा नहीं करते थे परन्तु अनुशाषित एवं उच्च मूल्यों का निर्वाह करती जीवन शैली स्वतः ही उन्हें समाज में यह शीर्ष स्थान दे रही थी। संभवतः उनके लिये शिक्षक से अधिक उपयुक्त शब्द "गुरु"है क्यूंकि उनका चरित्र इस शब्द के अधिक समीप दिखता था। बड़खेत का उनका कार्यकाल उन्हें अब तक एक शिक्षक और कुशल प्रशासक के रूप में स्थापित कर चुका था।  

प्रधानाध्यापक: जूनियर स्कूल, हल्दूखाल 

जिस समय बढ़खेत एक उच्चतम माध्यमिक विद्यालय (इण्टर मीडिएट) के रूप में स्थापित था, हल्दूखाल में केवल ८वीं तक की शिक्षा (मिडिल) उपलब्ध थी। बूंगी क्षेत्र में अब सभी बुद्धिजीवी जनों को एक अच्छे शिक्षा संस्थान की आवश्यकता दिखनी प्रारंभ हो चुकी थी परंतु इस कार्य हेतु एक कुशल नेतृत्व की भी आवश्यकता थी। क्षेत्र ने इस कार्य हेतु सबसे उपयुक्त व्यक्ति आप में देखा। क्षेत्रीय जनमानस की ओर से लगातार हो रही माँग को आप ठुकरा न सके एवं अंततः १९६८ में अपनी उच्चतम माध्यमिक विद्यालय के सह-प्रधानाचार्य  की नौकरी जो आपको बेहतर एवं सफल भविष्य की ओर ले जा रही थी, का त्याग कर चुनौतियों से परिपूर्ण मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक की जिम्मेदारी लेने हल्दूखाल चले आये। लक्ष्य यही कि बूंगी पट्टी में एक उच्चकोटि का शिक्षण संस्थान स्थापित कर सकें। 

प्रधानाचार्य: उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, हल्दूखाल 

१९७३ में ही मिडिल स्कूल हल्दूखाल जो कि केवल ८वीं तक की शिक्षा दे पा रहा था, उसे १० वीं तक के शिक्षण संस्थान में बदलने में सफल रहे। उसके बाद १० वीं विज्ञान वर्ग की मान्यता भी प्राप्त की। १९८० तक आते आते हल्दूखाल १० वीं तक की शिक्षा के लिये एक उच्च कोटि का विद्यालय बन चुका था और आपका एक मात्र ध्येय विद्यालय को नयी ऊँचाइयाँ दिलवाना रहा। विद्यालय में जैंसे -२ नई कक्षाएँ बढ़ती गयीं, विद्यार्थियों की सँख्या भी बढ़ी। विद्यालय जनता का था न कि राजकीय तो भवनों की व्यवस्था भी स्वयँ ही करनी थी।  

विद्यालय भवन निर्माण रणनीति: 

अपने समाज की उन्हें बहुत ही अच्छी समझ थी और प्रयास यही था कि न सिर्फ अपनी सांस्कृतिक विरासत को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया जाय वरन समाज को एकजुट कर विद्यालय के लिए अपनत्व का भाव भी जागृत किया जाय। इस पुनीत कार्य में उनका साथ दिया अपनी परम्पराओं/त्योहारों ने। होली के समय पर बड़ी कक्षाओं के बच्चों एवं अध्यापकों को लेकर विद्यालय के नाम से होली उठायी गयी। उस समय पारम्परिक रूप से गाँव-२ जाकर प्रत्येक आँगन में होली गायी और खेली जाती थी। जिस किस भी परिवार के आँगन में होली होती थी, वह परिवार स्वेच्छा से कुछ पारितोषिक स्वरुप धन या अनाज देता था। एक साल की होली से कक्षा नौ के लिये भवन निर्माण किया गया। होली के बाद समय आता दशहरा/दीवाली का। तत्कालीन समाज में रामलीला का बहुत प्रचलन था। विद्यालय के कार्यों के लिए धनोपार्जन का यह भी एक अच्छा उपाय बना। ये कुछ ऐंसे प्रयास थे जो समाज को न सिर्फ एकजुटता देने में कारगर साबित हुए बल्कि विद्यालय हेतु धनोत्पार्जन के साथ-२ अपनी संस्कृति को निरंतरता प्रदान करने के वाहक बने। 

शिक्षा एवं समाज (जनता विद्यालय या राजकीय):

राज्य का शिक्षा में सीमित दखल होना चाहिए, आप इस विचार से पूर्ण रूप से आश्वस्त थे। यही कारण था कि विद्यालय राजकीय हो, इसके आप कभी समर्थक नहीं रहे। उनका मानना था कि शिक्षक एवं विद्यार्थी में जितना लगाव हो, शिक्षा उतनी आसान हो जायेगी। हल्दूखाल विद्यालय में ९०%शिक्षक स्थानीय थे जिनका विद्यार्थियों से सामजिक रूप में भी जुड़ाव रहता था  और यही कारण था कि उनके विद्यालय से सदैव अच्छे छात्र-छात्राएं निकले। 

तत्कालीन राजनीति में आपका बड़ा हस्तक्षेप था एवं श्री हेमवती नंदन बहुगुणा जोकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे, से काफी नजदीकियाँ थी। बहुगुणा जी लगातार विद्यालय को राजकीय करने की सलाह देते परन्तु आप जब तक प्रधानाचार्य रहे, ऐंसा नहीं होने दिया।  कारण ये कि विद्यालय राजकीय हुआ तो नये शिक्षक आयेंगे जो इस क्षेत्र के बाहर से भी हो सकते हैं। ऐंसे शिक्षकों का विद्यार्थियों से इतना प्रेम भाव नहीं रहेगा जोकि तत्कालीन स्थानीय शिक्षकों का है। किसी भी कारण शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता हो ये आपको स्वीकार्य नहीं था। कभी-२ अपने इस स्वभाव के कारण आलोचना भी सुननी पढ़ती थी परन्तु अपने सिद्धांतों से हटना कभी मंजूर नहीं रहा। सूचित हो कि जनता द्वारा संचालित विद्यालयों में शिक्षकों को वेतन सरकार से प्राप्त होता था परन्तु विद्यालय प्रवंधन स्वयं समाज के ही हाथों में था। इस हेतु प्रवंधन समिति बनाई जाती थी। 

शिक्षण एवं सामजिक जागरण का तालमेल:

हल्दूखाल में जैंसे-२ विद्यालय का उच्चयन हुआ, बाजार का भी विस्तार होना शुरू हो गया। जहां विस्तार एक रूप से तरक्की लाता है, साथ ही कुछ चुनौतियां भी विकास के गर्भ में छुपी होती हैं। ऐंसी ही एक बड़ी चुनौती बनकर आयी 'शराब' .समाज के साथ-२ शिक्षा संस्थानों में भी इसका प्रकोप होने लग गया था। आपकी दूर दृष्टि ने इस विनाशकारी बदलाव को पहले ही भांप लिया था। हल्दूखाल में जनमानस को इसके विरुद्ध एकत्रित करने का कार्य किया और हल्दूखाल बाजार पर शराब का कम से कम असर रखने में सफल रहे। 

सेवा निवृत्ति: 

लगातार ३० वर्ष तक हल्दूखाल के प्रधानाचार्य के रूप में सेवाएँ देने के उपरान्त १९९८ में आप सेवा निवृत्त हुये। अवकाश लेने से पूर्व जूनियर स्कूल हल्दूखाल, उच्चतम माध्यमिक विद्यालय हो चुका था। बच्चों को १२ वीं तक की शिक्षा हल्दूखाल में ही मिलने लगी थी। संभवतः आप सम्पूर्ण उत्तराखंड में सर्वाधिक लम्बी अवधि तक एक विद्यालय के प्रधानाचार्य रहे हों। 

अन्य योगदान:

- उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भागीदारी। 
- क्षेत्र में खेलों को बढ़ावा देने हेतु व्यक्तिगत स्तर पर वॉलीबॉल प्रतियोगिता का आयोजन। 
- हल्दूखाल में एक मुख्य व्यक्ति के रूप में समाज का नेतृत्व/मार्गदर्शन। 
- अपने जन्म ग्राम बवाणी के ग्राम प्रधान भी रहे। साथ ही अपने जीवन काल में गाँव में सदैव निर्विरोध प्रधान की परंपरा को बनाये रखा। स्वतंत्र भारत में बवाणी में प्रथम बार प्रधान चुनाव आपके देहांत वर्ष २०१३ के बाद ही हुआ। 
- राजनीति और शिक्षा का ताल मेल बनाने की अभूतपूर्व क्षमता।

लेख: 
विजय गौड़ 
गौरवान्वित सुपुत्र श्री सुरेशानंद गौड़। 
वर्तमान निवास: कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका।