Monday, 26 August 2013

"उरख्यलि"

दगिड्यो,
आज सब्यों कु परिचय एक यनि चीज़ से कराणु छौं जु हमरा इतिहास मा बडु महत्व कु स्थान रख्दि छै। आज अवश्य नै समय क नौन्याल बुल ला कि मि क्य बात कनु छौं पण सच यु ई च कि ईं वस्तु कु हम सब्यों क वास्ता बडू योगदान रै। वे समय मा दिख्ये जा त या 'ब्वै' कु हि रूप छै। मै बात कनु छौं  "उरख्यलि" की ज्व कबि हरेक चौकै तिरालि दिखेंदी छै, जैमा रोज नाज कुटेंदु छौ अर वांका पश्चात हम खांदा छाया। आज य कुटणा कि परंपरा विलुप्ति का द्वार पर च, मेरु प्रयास यनु च कि ईं अन्नदाता की कुछ स्मृति बिटोलि की रखूँ। एक कविता हमरा पुरण्यों कि ईं सैन्दाण "उरख्यलि" थैं समर्पित। 


बिसरी ग्याँ तुम जैथैं, मै व़ी नखरयलि छौं,
जरा पछ्याँणा त भुलों मैथै, मै तुमरि हि उरख्यलि छौं। 

तुमरु मेरो साथ साख्यों बिटी च,
ब्वै क हतु कि रुटलि, भैणि राख्यों बिटी च  
तुम भूकन कबि रुयाँ त मि ब्वै बणी ग्यों,
मौस्याँण सि चा रयुं भैर, पण मौस्याँण कबि नि रौं,
मि सुप्पु कि दगड्या अर दीदि गंज्यलिक छौं,
पछ्याँणि तुमुन मैथै, मै तुमरि हि उर्ख्यलि छौं।   

ददि-दाज्यों बारम भुलों बड़ी सज-समाल छै,
धुवै-पुछ्ये कि, रोज कुटे कि होंदि जग्वाल छै,
ब्यो-पगिन्यों बेर मैमु बि रान्दि हल्दयाण छै,
बार-त्योहारों कि वे बगत अहा कनि रस्याँण छै,
पितरों कि सैन्दांण भुलों, मै नाजै औंज्यलि छौं,
पछ्याँणि तुमुन मैथै, मै तुमरि हि उर्ख्यलि छौं।   

अब मुल्कौ रीत-रिवाज सि मि बि हर्चि ग्यों,
नै ज़मानै दौड़-भागम भुलों, मि नि दौड़ी सक्यों,
खेति-पात्यों ब नाज हि क्वी नि बुतणा, 
उरख्यली, जन्दरि फेर कैन सुंगणा?
पाणी जैकु प्योणु नि क्वी आज, मि वा नवलि छौं,
पछ्याँणि तुमुन मैथै, मै तुमरि हि उर्ख्यलि छौं।   

कॉपीराईट @विजय गौड़ २७.०८.२०१३