भै-भैण्यों! आज हमरा उत्तराखंडी समाज मा एक बदलाव दिखेणु, हम लोग जागरूक हूणा छाँ। आज कु युवा सवाल पुछणु सिखणु च जु म्येरा मन थैं एक नयु रैबार दीणू च।
मि येतेंन एक रचनात्मक बगत क रूप मा दिखणु छौं, भलु बदलाव क रूप मा दिख्णु छौं। ये हि विषय पर म्येरि य गढ़वली कविता, आस मा छौंऊ कि जन मितै दिखेणु, तनि आप बि दिखणा होला, अगर अज्युं नि दिखणा त कविता पौढ़ी दिखण बसिल्या, समझण बसिल्या। रैबार जरुर याद रख्याँ .......
दिदौं, औंण वला छन दिन अब म्येरा पहाड़ का,
ठोका छत्ति बोला, हम कुमों-गढ़वाल का।।
'ब' अर 'ख' से उब उठुणु समाज अब,
छ्वटि जात-बडि जात कु टुटणु रिवाज अब,
उठदि सोच, पढ़याँ-लिख्यों कु राज अब,
धार-खालों कु बदलुणु मिजाज अब,
जिकुड्यों आग सुलगणि,
औणान दिन उमाल का,
ठोका छत्ति बोला ..................................
बिंगणी मनख्यात चकडैतों कि चाल अब,
बँटयां गढ़वली-कुमै वलु, नि रै वु साल अब,
सरया उत्तराखंड एकि सवाल अब,
मुलुक मा लाण 'विकासौ बबाल' अब
जौलि ग्येनि रांका,
नि रैनि दिन जग्वाल का,
ठोका छत्ति बोला ..................................
बुटि ग्येनि मुट्ट, मिलि ग्येनि हात अब,
'उत्तराखंडी' छोड़ी, नि रै क्वि जात अब,
निवास्युं कि कारा चा प्रवास्युं कि बात अब,
मुल्कौ खुणि हिटणा, सबि साथ-साथ अब,
भौ त व्है ग्ये भेद-भौ,
अब दिन अंग्वाल का,
ठोका छत्ति बोला ..................................
रचना: विजय गौड़
कविता संग्रह "रैबार" से (१२।०६।२०१३)
Copyright @ Vijay Gaur 12/06/2013
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