Tuesday, 3 July 2012

" पहाडै कोलंबस"

 दगिडयो,



तौं घस्यार्युं देखि मिथें यना ख्याल आना छन, आशा च बक्की भी मी सें सहमत होला!!!



पहाडै कोलंबस" 

हे मेरा उत्तराखंड की नारी!
माँ-भैणी , बेटी-ब्वारी,
मी तुमु थैं कोलम्बस की संज्ञा देणु चांदू,
यु तेरु ही प्रताप च कि,
ये निरंतर सुखदा पहाड़ मा भी,
झणी कें "नयी दुन्या" से हैरू घास ऐ जांदू.

जख नौजवान और दानु दारु मा  डुब्युं रांदु,
वुख तेरु संघर्ष मा कुछ भी फरक नि आन्दु,
नाम कु ता तेरी खुट्यो कुंगली बुल्दन,
पर विधाता भी स्यों थैं हिले नि पांदू.

क्वी डाली यनि नि च ज्वा त्वे नि पछ्यंदी, 
और क्वी जंगल यनु नि जू त्वे नि बुलांदु,
मी थैं ता यनु लगदु कि तेरी पिडा देखि,
सुखीं डाली और जल्युं जंगल भी हैरू हवे जांदू.

हे मेरा पहाड़ कि दीदी भुलि, बेटी ब्वारी,
मी त्वैथैं शत शत नमन कन चांदू.
एक त्वी ता छै ज़ें देखि,
मी पहाड़ी होण मा शान चितान्दू!!!!
पहाड़ी होण मा शान चितांदु!!!!


"मानसिंग (मानसून) बोड़ा ऐजा"

दगिड्यो,

मान्सूनै आजकि स्तिथि से हम सब परिचित छां, ब्याली मेरी फेसबुक पर अपणा कुछ भै-बन्दों दगडी बात हूणी छै, वू सभी लोग दिल्ली मा रेदन और घौर भी लगातार जाणा रैन्दन. सब कु यु ही बुन्न छौ कि गरमन्न हाल बुरा हुयां छां, दिल्ली मा भी और उत्तराखंड मा भी...दगड़ा-दगडी आज सुबेर-२ श्रदेय भीष्म कुकरेती जी ना भी एक लेख भेजी छौ, वेमा भी मान्सुने कु बखान छौ. बचपन मा दानी बोड्यु का गिचन सुण्यो छौ कि 'बेटा, टी बी मा बुना छां कि "मानसिंग" नि ऐ अभी. मिन वां पर ही एक कविता बनै दये.आशा च सभी पाठको थैं या कविता घौर ली जाली और पुराणा दिनों कि याद दिलाली..

"मानसिंग (मानसून) बोड़ा ऐजा"

छि भै बोड़ा यन्न नि रुसान्दा,
अपणा नौन्यालू और भै-बन्दों थैं, सिन नि तर्सान्दा,
हपार देख! बोड़ी ढयाँ मा जईं धै लगाणु,
बल, उज्याड़ नि जांदा, च्या ठंडी हूणि, प्ये जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!

माना की मैंगै भिंडी हवे ग्ये, 
और कमै का वास्ता, तू प्रवासी हवे ग्ये,
नौन्याल भी हाथ नि बटाना छन,
और तू यकुलू प्वैड ग्ये, 
पर बोड़ा! नाती-नतिणों की गट्टा-कुंजों की आस लगी च, दये जा.
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!

एक मैना बिटिन्न बोड़ी सज-धजी बैठीं च,
तेरा औण की खुशि मा, देखा कनि तणितणी हुयीं, कन्न ऐंठी च 
सुच्णी च अब त बोर्डर पर लड़े वला दिन भी नि छन,
रिटैर आदिम थैं यन्नी देर किलै लग्नी च,
उठ, खड़ू हो और दिखे जा दम ख़म, अपणु प्रेम छलकै जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!

तेरु उत्तराखंड जू अपणी हरयाली कु जणेदु छौ,
देख कनू खरडु, कनू निरस्यु दिखेणु च,
माना की त्येरा भै बंद अब मुंगरी, कखड़ी, गुदड़ी सब बिसरी ग्येनी!
पर त्येरु त अपणु धरम, अपणी मान मर्यादा च,
आ! झमाझम बरखी, कुयेड़ी लौन्कै, अपणु "डिसिप्लिन" दिखै जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!! सब्यो की तीस बुझै जा!!! तरस्यु सरेल रुझे जा!!!

विजय गौड़ 
०३-०७-२०१२ 
सर्वाधिकार सुरक्षित


Comment by Bhisma Kukreti: 

वस्तु क मानवीकरण  भौत बढिया च
अर फिर दगड मा जु बि सिम्बल  छन वो मानसून का  रिलेटिव छन
मी तै बोडि बि सज धज कि बैठी पंक्ति  पर ड़्यार का  वो दिन याद ऐ गेन जब लोक बरखा/मानसून से पैल मुंगर्यडु   साफ सफै , आड़ लगै लुगैक  मुन्गर्याती बरखा कि जग्वाळ करदा छ्या.
जब कें कविता बांचिक या सूणिक कवी नै  इमेज/बिम्ब  बणि जाओ या पुराणि इमेज  मन मा ऐ जाओ ट समजी ल्याओ कविता सफल च