Monday 25 June 2012

गढवळि कवि श्री विजय गौड़ अ भीष्म कुकरेती क दगड छ्वीं

गढवळि कवि श्री विजय गौड़ अ भीष्म कुकरेती  क  दगड  छ्वीं 

भीष्म कुकरेती- जरा अपुण गढवळि साहित्य मा मिळवागो को परिचय दे दियां.

विजय गौड़ - म्येरू जलम पौड़ी गढ़वाल मा नैनीदान्दा ब्लाक कु बवणी गाँव मा एक शिक्षक परिवार मा हवे. पिता श्री सुरेशानंद गौड़    इंटर कॉलेज हल्दुखाल का अवकाश प्राप्त प्रधानाचार्य छन और माँ श्रीमती देवी गृहणी च. चार भायों और एक भैणी कु परिवार मा मी सब से छ्वट्टू छौं. पिछला ०८ सालो से पुणे मा ही परिवार का दगड रांदु. (पत्नी और बेटा). बचपन से ही अपणा पहाड़ से लगाव छौ और इच्छा छाई की हमरि (उत्त्राखंडयों की)  अपणी एक पछ्याण हूनी चयेनी च. एका वास्ता ही यदा कदा सामयिक विषयों पर अपणी लेखनी चलै देन्दु. शुरुवात हिंदी कविता से हवे और अब अपणी असली राह 'गढ़वाली कविता' पर ही अग्रसर छौं..जब भी बगत मिलद, द्वि आखर लेखी देन्दु. और आप सभी पाठको की मुश्किल च की आप लोगु थैं पढ़ण/सुणन पुडद.

साल २००५ -०६ मा मेरी पैली गढ़वाली गीतमाला रामा कैसेट कंपनी से निकली. नाम छौ , 'कनी होली वा'. हालांकि वेका बाद फिर समय नि मिली अग्ने कैसेट निकलना कु, लेकिन कविता लिखनु रौं और आज भी यदा कदा बचपन की वा खज्जी लगी ही जान्द.

आजतक लगभग ३०-४० गढ़वाली कविता और इतना ही हिंदी/उर्दू मा लिखी छन.. 

भीष्म कुकरेती - आप साहित्यौ दुनिया मा कनै ऐन? 

विजय गौड़ - गढ़वाली साहित्य मा कुछ योगदान की बचपन से ही इच्छा छै. जब भी क्वी रैस्वान मिथें बुल्दु छौ की गढ़वाली ता एक 'बोली' च, 'भाषा' ना, मेरु मन बहुत आहत होंदु छौ. साथ ही साथ आदरणीय नरेन्द्र सिंह नेगी जी से शुरू से ही प्रभावित रौं, गीतों से ता जरूर लेकिन वेई से भी भिंडी वुँका कवित्व से. मन यु ही बुल्दु छौ की कभी यना शब्द मेरी लेखनी भी लिखली? आज जणदु ता नि छौ की कख पौन्छु मी, लेकिन अपणा विचार जरुर रखी देन्दु.

आज एक ही इच्छा च की गढ़वाली थैं जल्द भाषा कु दर्जा मिलू.

भी.कु-  वा क्या मनोविज्ञान छौ कि आप साहित्यौ  तरफ ढळकेन ? 

विजय गौड़ - शायद यांका पैथर मेरु स्वछन्द मन च जू उडनू चांदू, बुल्णु चांदू, नच्नु चांदू, सच मा ना ता कम से कम कविता का माध्यम से! ज्वा बात आप सीधा नि बोली सकदा, साहित्य का माध्यम से जनमानस का सामणी जरुर लै सक्दन और वही कोशिश कनू रांदु. सफलता और असफलता पाठको पर आश्रित च..

भी.कु. आपौ  साहित्य मा आणो पैथर आपौ बाळोपनs     कथगा हाथ च ?

विजय गौड़ - पैदा हूण से लेकर १० वीं कक्षा तक घार मा ही रयों. नजीबाबाद स्टेशन से बजदा नेगी जी सामयिक बिषयों पर आधारित गीत कभी कभी सुन नौ मिल जांदा छया, हालांकि पिताजी का नियमो का मुताबिक रेडियो सुनून अपराध छौ फिर भी नेगी जी का गीत पर रेडियो बंद नि होंदु छौ और वू बालुमन आज भी जब तब उछलेन बस जान्द. आज भी कभी कभी घार मा बुल्दन की मी अब भी बालु ही रै ग्यों..

भी.कु-  बाळपन मा क्या वातवरण छौ जु सै त च आप तै साहित्य मा लै ? 

विजय गौड़ - पिताजी का शिक्षक हुण का वजह से साहित्य से वास्ता ता बालपन से ही छौ. हालांकि वू खुद अंग्रेजी साहित्य से एम् ए छन लेकिन अन्य किताबों कु संकलन भी घार मा छायो. साहित्य पढ़ना कु शौक वुख बिटीं ही ऐ ग्ये छौ.

भी.कु. कुछ घटना जु आप तै लगद की य़ी आप तै साहित्य मा लैन !


विजय गौड़ - शायद कुछ हद तक नाच गानों से पिताजी की मनाही. बालमन यी सुचदू छौ की आखिर बुरु क्या च येमा. पैल गीत गाना कु शौक छौ फिर लिखना का तरफ पल्टे ग्यों किलै की लिखना की मनाही नि छै घार मा. गाना कु शौक लेकिन आज भी गै नि च.. 

भी.कु. - क्या दरजा पांच तलक s  किताबुं हथ बि च ? 

विजय गौड़ - माफ़ी चांदू, यु प्रश्न समझ नि ऐ.क्या आप पांच तक की किताबो का योगदान का बारा मा पूछना छन. अगर हाँ ता बिलकुल.

भी.कु. दर्जा छै अर दर्जा बारा तलक की शिक्षा, स्कूल, कौलेज का वातावरण को आपौ  साहित्य पर क्या प्रभाव च ?
विजय गौड़ - यु बगत ता शेरो शायरी कु छौ, बस तुकबंदी कैरी की द्वी लाइन लिखदा छया शुरू मा, बारवी तक आन्द-आन्द हिंदी कविता   शुरू हवे ग्ये छै. दसवी का बाद घार छुटि ग्ये छौ अग्ने की पढाई का वास्ता और यिखी बीटिं कविता ना अपणु रूप लेनु शुरू करी.  


भी.कु.- ये बगत आपन शिक्षा  से भैराक कु कु  पत्रिका, समाचार किताब पढीन जु आपक साहित्य मा काम ऐन ?

 विजय गौड़ - बहुत सी पत्रिका बचपन से ही पढिन्न. येमा पिताजी कु पूरू योगदान रै. पुस्तकों कु संकलन कु वुन्कू शौक मिथें लिखना कु  प्रेरित कनू रै..क्वी एक पुस्तक कु नाम लेनु मी ठीक नि सम्झौंलू ईख मा, किलै की यु सामूहिक च..


भी.कु- बाळापन से लेकी अर आपकी पैलि रचना छपण तक कौं कौं साहित्यकारुं रचना आप तै प्रभावित करदी गेन?

विजय गौड़ - माफ़ी चंदु, बहुत अधिक कविता मेरी प्रकाशित नि हुयी छन. यदा कदा कुछ मगज़ींस मा भेजी देन्दु ता व्है जन्दीन. जख तक प्रभाव कु प्रश्न च शायद नेगी जी का सिवाय हैंकु क्वी नाम मी नि लेंलू.

भी.कु. आपक न्याड़ ध्वार, परिवार,का कुकु  लोग छन जौंक आप तै परोक्ष अर अपरोक्ष  रूप मा  आप तै साहित्यकार बणान मा हाथ च ?
विजय गौड़ - जब छ्वट्टू छौ ता भाभी थैं झिलांदु छौ, जू भी लिखदु छौ. फिर गढ़वाली मा लिखाणु शुरू कैरी ता मेरा भाई श्री संजय गौड़ जी थैं खूब पसंद ऐ और वूना अपणी कैसेट कु विचार थैं सहयोग दये , वेका बाद सरया परिवार दगडी ऐ ग्ये. आज मेरा पिताजी भी बुल्दन की मेरु नौनु अच्छु कलाकार च, लिख्वार च...

भी.कु- आप तै साहित्यकार बणान मा शिक्षकों कथगा मिळवाग च ?

विजय गौड़ - शायद तब तक मी कविता थैं लेकी इथ्गा नि सोचदू छायो लेकिन ज्वा शिक्षा वू लोगु ना दये आज जरुर काम आणि च और मदद कनि च.

भी .कु. ख़ास दगड्यों क्या हाथ च ?

विजय गौड़ - मेरा मुलुक खासकर नैनीदान्दा ब्लाक का मित्रों कु योगदान च, मेरा गाँव का दगिद्यों कु खासकर जौन मेरी कविता थैं कंदुड दयेन. आज भी सब्यों की फरमाईश नयी कैसेट का वास्ता औंदी रैदा. देखा कब तक मेरी कविता थैं फिर से संगीत मिलदु लेकिन बढ़िया बात याचा की कविता निरंतर चलनि च ...

आज मेरी धरमपत्नी कु पूर्ण सहयोग रांदु मेरी कविता थैं सुणन मा, निखरण मा..वेंकू नाम नि ल्येंलू ता अग्ने  लिखन नि दयेली और खाणी पीणी भी...

भी.कु. कौं साहित्यकारून /सम्पादकु न व्यक्तिगत रूप से आप तै उकसाई की आप साहित्य मा आओ 

विजय गौड़ - फिर यी बुल लू की मी तक ता नेगी जी ही पौंछ दन और प्रेरित करदा रैन्दन परोक्ष रूप से, ब्याक्तिगत मुलाकात ता केवल एक ही बार हवे छै. 

भी.कु. साहित्य मा आणों परांत कु कु लोग छन जौन आपौ साहित्य तै निखारण मा मदद दे ?

विजय गौड़ - आज  इन्टरनेट का आन से सामाजिक रूप से बिभिन्न लोगो से मुलाक़ात हूनी च , आप भी वेई ही प्रगति का एक हिस्सा छन, आशा च अग्ने आप लोगु कु मार्ग दर्शन भी मिलणु रालू.. 

सभी सुणदरों , पढ्दारों कु एक बार फिर धन्यबाद यही आशा च की गढ़वाली साहित्य अपणी नयी ऊँचाई छुयो और ज्यादा से ज्यादा बुल्दारा, लिख्दारा यी भाषा थैं प्रयोग करी...

आदर का दगडी..
आपकू विजय गौड़


                                           
                                        विजय गौड़ की एक कविता

                                         "पहाड़ माँ बलिप्रथा"


हे देवी! दैंनी ह्वै जै, ये साल मेरु नाती ह्वै जालू ता त्वैमा 'जौंल' चढ़औंलू,
हे देवी! दैंनी ह्वै जै, मेरु नाती थैं पांच साल कु कैर दयेई त्वैमा 'जौंल' चढ़औंलू.
हे देवी! दैंनी ह्वै जै, मेरु नाती थैं दस पास करे दये त्वैमा 'जौंल' चढ़औंलू
हे देवी! दैंनी ह्वै जै, मेरु नाती की नौकरी लगे दये त्वैमा 'जौंल' चढ़औंलू 
हे देवी! दैंनी ह्वै जै, मेरु नाती कु ब्यो करे दये त्वैमा 'जौंल' चढ़औंलू.


क्या सच मा देवी याँ से दैंनी ह्वै जान्द?
या यांका पैथर सिर्फ हमरि पिछड़ी सोच आन्द?
आखिर एक जीव की ज्यान लेकी देवी दैंनी कनकै ह्वै सकद?
शायद यु जीव भी ता देवी की दया से ही पैदा ह्वान्द?
मिथें आज का समाज मा कन्या भ्रूण की दशा,
और पहाड़ी समाज मा बुग्ठया की स्तिथि मा कुछ अंतर नि दिख्यान्द,
एक पैदा हूण से पैल मार दिए जान्द,
और दुसरू थैं खिलै-पिल्लै की चट कैर दिए जान्द.
मेरु धन्यबाद च मेडिकल साइंस थैं,
की अल्ट्रा साउंड आज भी भिंडी पैसों मा ह्वान्द,
निथर बखरी कु और ब्वारी कु अल्ट्रा साउंड दगडी करये जान्द,
और ब्वारी कु कोख मा नाती पता चलन पर,
बखरी कु कोख कु नौनु देवी मा चढ़ये जान्द.
क्या आस्था का नाम पर यु कत्लेआम ठीक मन्यु चाँद?
जेथें हमरु समाज कभी अष्ठ्बली का नाम से देवी का थान मा,
या फिर अलग अलग जात, पूजै का नाम पर कनी रान्द?
मी हम सब्यों क सामणी एक सवाल रखनु चाँदु,
कि जब एक बेजुबान का सरीर और कंदुढ मा चौंल-पानी डल्ये जान्द,
ता क्या झुर्झुराट स्ये वेकु बदन नि हिलण चयांद?
बस उठावा डन्ग्रू और उडै दया वेकि मूण,
वू निरीह ता चुपचाप हमरी अंधी आस्था की भेंट चढ़ी जान्द.
और हमरा घार मा द्वी तीन दिन तक संगरांद हुईं रांद.
अरे! हमसे भलु ता वू 'क़सै' च,
जू अपणा व्यवसाय मा देवतों कु नौ त नि लांद.
उठ, जाग और बोट मुट्ट मेरा उत्तराखंड कु नयु समाज,
खा सौं की यी कुरीति पर अब रोक लगी चाँद.
निथर भोल हमरी आणवाली पुश्त भी यी नि सोच की,
कै बेजुवान, कै लाचार की ज्यान देवतों क़ नौ पर ल्येन से पुण्य आन्द.


विजय गौड़
२१/०६/२०१२
सर्वाधिकार सुरक्षित


विजय वचन: दगीड्यो या कविता मी कैथैं ठेश पौन्चाना क़ वास्ता नि लिखनु छौं, बल्कि अपणु नयु उत्तराखंड क़ जनमानस से विनती कनू छौं की हमरा समाज मा जू कुप्रथा छन, अंधविश्वास छन, वें सें भैर आण चयेनु च. या मात्र पिछड़ापन की निशानी च. क्या हम यी बात थैं सब्यु क़ सामणी गर्व से बोल सक्दन की या हमरि महान परंपरा च? अगर आप लोगु कु उत्तर 'ना' च, ता एक नयी शुरुआत खुद से कारा, वा या की मिन आज से देवी क़ थान मा 'बलि' नि दयेन. वे पैसा थैं आप एक डाली रोपी की वांकी देखभाल पर लगये सक्दां, या फिर देवी क़ नाम पर और भी बहुत कुछ करे सक्येंदा, जैसे संपूर्ण जनमानस थैं लाभ होलू और देवी प्रसन्न ह्वैकी अपणु आशीर्वाद आप और आपका परिवार थैं जरुर दयेली.


यी कविता पैड़ी की अगर मेरा सिवा अगर एक भी मनखी देवतो क़ नाम पर जीवहत्या नि करण की सौं खान्द ता मी ये थैं अपणी सफलता सम्झुलू.


Regards
B. C. Kukreti

http://vijaygarhwali.blogspot.com

"सिक्यसौर"(नक़ल)

"सिक्यसौर"(नक़ल)





मगलेश डंगवाल की कैसेट" माया बांद" हिट क्या हवे ग्ये,कि गढ़वाल मा 'बांदो' की उमाल सी ऐग्ये. 
चंदा बांद, सनका बांद, चखना बांद, फुर्की बांद और झणी क्या-क्या,
 दै निर्भग्यो! गढ़वाल का लिख्वारो मा क्या हैंकु, क्वी "सब्जक्ट"  हि नि रै ग्ये? 

एक जमानो छौ जब थडिया, चौफला, खुदेड, संजोग, विजोग और सन्देश का गीतों न गढ़वाल गुन्जदु छौ,
आज 'लबरा छोरी' और 'नेगी कि चेली' जनु स्तरहीन संगीत ऐ ग्ये. 
कुछ लोग ये थैं 'प्रोग्रेसिव म्यूजिक ऑफ़ गढ़वाल' बुल्दन,
भै-बन्दों!! अब तुम हि बोला! कि क्या यनि 'प्रोग्रेस' हूणी बक्की रै ग्ये?


आखिर कख लिजाणा छन हमरु संगीत थैं यी नया ज़माना का गितेर?
क्या भला गीतों कि जिमेवरी एकमात्र 'नेगी जी' कि रै ग्ये?
तुम भी ता वी हवा, वी पानी और वीं प्राकृतिक सम्पदा कु भोग कना छां,
बोला ता कुछ यनु कि जनमानस बोलू कि जुगराज रै भुला, मजा ऐ ग्ये!!

हाल कुछ यनु चा कि आज कु नौजवान बुन्नु, "मेरे को पाड़ी मत बोलो मै देरादुन वाला हूँ"
बोला प्रवासी उत्तराखंड्यो या कनि बयार ऐ ग्ये?
आज जब सर्या पहाड़ हि रोजगार का वास्ता प्रवासी हवे ग्ये,
त क्या केवल बांजी कूड़ी-पुन्गुड़ी, द्वी चार मजबूर और वुँका गोर बखरा हि "पाड़ी" रै ग्येन??

हम अपणा उत्तराखंड थैं कन्न दिखणा चांदा,
अब वू बगत हम सब्यों का सामणी ऐ ग्ये,
निथर वू दिन दूर नि चा दगिड़ो,जब दुन्या थट्टा लगाली कि,
पहाडयों ना अपणी मीठी पछ्याण, छित्या कि 'सिक्यासौर' मा ख्वै दये, छित्या कि 'सिक्यासौरमा ख्वै दये......
विजय गौड़
25.06.2012
सर्वाधिकार सुरक्षित

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Bhishma Kukreti bckukreti@gmail.com

कविता सामयिक है और आपकी सामाजिक सरोकारी गुण को अभिव्यक्ति करती है
सकासौरी मा अपण  गौड़ लमडाण वाली बात को आपने भली अभिव्यक्ति दी है
थोड़ा हटके ---
हाँ आपका मराठी ज्ञान आज गढ़वाली के लिए क्रॉस  फर्टीलाइजर का  काम करे तो जादा फायदेमंद है
आज गढवाली साहित्य को नई संवेदना, नये विषय , चाहिए जो आप या मुझ सरीखे साहित्यकार दे सकते हैं
अगर मराठी के या अंग्रेजी भाषा आदि ..नव कविताओं को गढवाली  हिसाब से रचा  जाय तो वह गढवाली साहित्य हेतु अधिक लाभदाई होगा बनिस्पत गढवाली परिवेश पर लिमिटेड  होकर लिखा जाय