Saturday 29 August 2020

विजय की बुद्धिजीविता: आलेख ६

भारतीय दृष्टि, भाषा एवम दर्शन के ज्ञान के अभाव में उत्तराखण्ड की नयी पीढ़ी श्री नरेंद्र सिंह नेगी का काव्य आत्मसात करना तो दूर, क्या उसे समझ भी पायेगी? एक विश्लेषण 

मेरा जन्म हुआ भारत के उत्तर में स्तिथ उस राज्य में जँहा से भारतीय सनातन सभ्यता की जननियों में से प्रमुख 'माँ गँगा' का उद्गम होता है, दसवीँ कक्षा तक की शिक्षा वहीँ हुयी और उसके बाद जैंसा कि ग्रामीण भारत के प्रत्येक बच्चे का भविष्य होता है, मैं भी घर छोड़ कर निकल पड़ा आने वाले समय के दायित्वों के निर्वहन के लिये आवश्यक शिक्षण हेतु। जन्म से १५ वर्ष की आयु तक मेरे अंदर माता-पिता, परिवार, समाज और एक अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति जिसे उत्तराखंड में 'लोककवि' की स्नेहपूर्ण उपाधि मिली हुई है, नाम श्री नरेंद्र सिंह नेगी, द्वारा नैतिकता के बीज बोये जा चुके थे। श्री नेगी, वह विभूति जो भारतीय परंपरा, पहाड़ की परंपरा को जीती है, लिखती है। मेरे समय के प्रत्येक बच्चे के लिए 'नेगी जी' के गीत ऐंसे होते थे जैसे कि हमारे लिये ही लिखे गये हों। ऐंसे गीत, ऐंसा काव्य जिसका एक-२ शब्द भारतीय होता था, पहाड़ी होता था और काव्य के एक-२ शब्द में पहाड़ की, भारतीय सभ्यता की एक कहानी होती थी। गीत सुनकर यही लगता कि हम ही इसके मुख्य पात्र हैं। 

आज जब मैं शारीरिक रूप से अपने देश में न होकर उस देश 'अमेरिका' में हूँ जिसकी तथाकथित 'आधुनिक' सभ्यता को आज मेरे देश के युवा ने अपना लिया है (या ये कहें कि हमने एक भेड़चाल का अंग बनते हुये उन्हें इसमें डाल दिया है) तो सोचता हूँ कि क्या मेरी नई पीढ़ी 'नेगी जी' को समझ पायेगी। उन सन्दर्भों को समझ पायेगी जिनको 'नेगी काव्य' ने शब्द देकर सँकलित किया है? विचार आता है कि मैं हूँ तो उन्हें बताने के लिये और यह कुछ स्तर तक सत्य भी है परन्तु उसी समय भाषा के, विचार के, दर्शन के, दृष्टि के ज्ञान के अभाव को एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में पाता हूँ। यह स्तिथि मात्र उन भारतीयों की नहीं है जो भारत से बाहर हैं अपितु उनकी भी है जो भारत के आज के समाज में भी पल-बढ़ रहे हैं। आज का बच्चा भारतीय सभ्यता के, विचार के श्रेष्ठ उदाहरणों के नामों तक का तो सही से उच्चारण नहीं कर पाता। 'राम' रामा हो चुके हैं। कृष्ण, कृष्ना हो चुके हैं। गणेश, गनेशा बन चुके हैं। शेष नामों को तो भूल ही जाँय कि वे बोल भी पाएँगे। 'दधीचि', शत्रुघ्न, वशिष्ठ जैंसे नामों के सही उच्चारण की कामना तो बहुत ही दूर की बात हो चुकी है। 'ण' अब 'न' हो चुका है. 'ड़' या तो ड हो चुका है या 'र'। इसकी वानगी इसी में देखें कि मेरा बेटा अपने पारिवारिक नाम 'गौड़' के स्थान पर 'गौर' उच्चारित करता है और वह समय दूर नहीं जब 'गौड़', गौर ही बन जायेगा। अब इन बच्चों से क्या आप यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे 'नेगी जी' ने जो लिखा है, उसे समझ पायेंगे? उस लेखन को समझ पाएँगे जोकि बहुआयामी है? तर्क/दर्शन को मात्र 'true-false' में समझने वाला मानस भारतीय दर्शन की चतुष्कोटि को समझ पायेगा। क्या वह उस भारतीय परंपरा की वैतरणी की निरंतरता को बनाकर रख पायेगा जिसे 'नेगी जी' अपने साहित्य में बना पाये हैं। उदाहरणार्थ, सदियों पूर्व रंचे हितोपदेश 'उद्यमेन हि सिद्धन्ति, कार्याणि न मनोरथै:' को नेगी जी 'मन का मन्युला बैठ-बैठी नि पुर्योंदा' लिखकर पुनः भारतीय मानस में डालते हैं। 

कुछ ही वर्ष पूर्व मैंने अपने जीवन के २-३ माह वेस्टइंडीज (Caribbean) के एक देश गयाना में एक व्यावसायिक कार्य के हेतु बिताये। ज्ञात हो कि यह देश एक समय में अंग्रेजों के अधीन था और वे भारत से बहुत से परिवारों को वँहा श्रमिक के रूप में ले गये और आज गयाना की बड़ी जनसँख्या हिन्दू है। मैंने बहुत पास से वँहा के बच्चों को देखा है जो हिंदी के नाम पर मात्र 'बॉलीवुड' के गानों को सुनते हैं, बहुत से गीतों को उन्होंने कुछ अलग ही रूप दे दिया है। स्तिथि यह है कि गीत के बोल यध्यपि दुःख के हैं परंतु उन्होंने उसके संगीत को 'डांस नंबर' में बदल दिया है और वे हर्ष के साथ उस पर नृत्य करते हैं जबकि वास्तविक गीत दुःख से, करुणा से भरा हुआ है। क्या यह भारत का भविष्य है? 'गढ़वाली' भाषा ज्ञान की स्तिथि देखें तो वह यँहा पहुँच भी चुकी है। क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों  कि स्तिथि वैंसी ही होगी जो हमारी स्तिथि आज 'सँस्कृत' भाषा के ज्ञान को लेकर हो गयी है? क्या समाज में ऐंसी ही 'छवि' (perception) शेष भारतीय भाषाओँ की भी बन जायेगी, जो आज 'सँस्कृत' की है? (विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा 'सँस्कृत' आज के भारतीय समाज में मात्र पूजा-पाठ की भाषा के रूप में जानी जाती है)।

इतनी समृद्ध भाषाओं का, सभ्यता का यदि ऐंसा अंत होता है तो यह मानव सभ्यता का अपने अंत की ओर जाना होगा। भारतीय ऋषियों ने अपने स्थूल शरीर को एक प्रयोगशाला बनाकर अध्यात्म के जिन आयामों को समझा, उससे उनकी ही आज की पीढ़ी सर्वाधिक अनभिज्ञ है। स्तिथि यह है कि वे ऋषि भी आज 'माइथोलॉजी' का भाग बन गए हैं। अतः आज समाज का यह मुख्य दायित्व है कि वह अपनी नयी पीढ़ी को भारतीय भाषाएँ, दर्शन, दृष्टि सिखाएँ तभी नया समाज सच्चे अर्थों में 'आधुनिक' हो पायेगा न कि छद्म बॉलिवुडी आधुनिक। ऐंसा समाज जो 'सत्यमेव जयते' मात्र अर्थ की कामना (पैंसे बनाने के लिये या PR Exercise के लिए) के लिये न कहे अपितु उसका मूल आत्मसात कर अपनी दिनचर्या में पालन करे अन्यथा समाज 'बादशाह' 'हनी सिंह' तो प्रतिदिन पैदा करेगा परन्तु 'नरेंद्र सिंह नेगी' नहीं। 

 नेगी जी की एक रचना:

अषाड़ कुयेड़ी लौंकण से पैलि,
सौंण बरखा पाणी बरखंण से पैलि,
भादो का भदोड़ा बाण से पैलि,
ऐ जई  ........   
फेर दिन नि छन,
बामण बुनु च फेर दिन नि छन,
देख्यालि पतड़ु, फेर दिन नि छन।।

यह मात्र आरंभ है इस रचना का जोकि नेगी जी की टी-सीरीज से निकली कैसेट 'तुम्हरि माया मा' (तुम्हारे प्रेम में) से ली है मैंने। यदि आप भारतीय लेखन विधा को समझते हैं तो पायेंगे कि यह मात्र गीत की कुछ पँक्तियाँ नहीं हैं अपितु इससे आप ऋतु ज्ञान, जीवन शैली, भारतीय परिवार व्यवस्था में पति-पत्नी की एक दूसरे के लिये पूरकता, समाज व्यवस्था आदि अनेकों बातें समझ सकते हैं। इसी गीत को यदि आप पाश्चात्य व्यवस्था से देखेंगे तो अर्थ का अनर्थ कर बैठेंगे। रचना पहाड़ के किसी गाँव में जीवन व्यतीत करने वाले एक युगल के जीवन पर लिखी गयी है। भारतीय साहित्य को बिना देश, काल, परिस्तिथि के सापेक्ष रखे नहीं समझा जा सकता, यह भारतीय दृष्टि का मूल है। पत्नी अपने पैतृक गाँव गई हुई हैं और इस समय पति अकेले हैं। पति अपनी पत्नी के घर लौटने की प्रतीक्षा में हैं और पत्नी आ नहीं रही हैं। गीत लिखा गया है जब ग्रीष्म ऋतु  अपने अंत की ओर है, उस समय में। पति कहते हैं  : -

गढ़वाली: अषाड़ कुयेड़ी लौंकण से पैलि, 
हिंदी: आषाढ़ (वर्षा ऋतु में पहाड़ों में कुहरा फैल जाता है) माह के कुहरे के लगने से पहले,
गढ़वाली: सौंण बरखा पाणी बरखंण से पैलि,
हिंदी: सावन की वर्षा का पानी बरसने से पहले,
गढ़वाली: भादो का भदोड़ा बाण से पैलि
हिंदी: भादों माह में बोई जाने वाली फसल के लिये लगने वाले हल से पहले,
गढ़वाली: ऐ जई  ....... 
हिंदी: आ जाओ 
गढ़वाली: फेर दिन नि छन
हिंदी: उसके उपरान्त कोई अच्छे दिन (शुभ मुहूर्त) नहीं हैं।
गढ़वाली: बामण बुनु च फेर दिन नि छन,
हिंदी: ब्राह्मण का कहना है कि उसके उपरान्त दिन, मुहूर्त नहीं हैं। 
गढ़वाली: देख्यालि पतड़ु, फेर दिन नि छन। 
हिंदी: उन्होंने अपनी पत्रावली (पुस्तक जो भारतीय ज्ञान परंपरा में ग्रहों की स्तिथि, जलवायु, दिशा आदि के विस्तृत अध्ययन के उपरांत बनाई जाती थी) देख ली है और उनका सुझाव है कि उसके उपरान्त शुभ मुहूर्त नहीं है। 

इसमें आप भारतीय सभ्यता के गीत के माध्यम से किये जाने वाले अप्रतिम कहानी लेखन (Story telling) को स्पष्ट देख सकते हैं। यह रचना पहाड़ की जीवन शैली से भी आपका परिचय करवाती है। आषाढ़, सावन, भादों वर्षा ऋतु के माह हैं यह भी बताती है। भारतीय साहित्य की व्याख्या करने के लिए भारतीय दृष्टि के मापदंडों (देश, काल, परिस्तिथि) के बिना आप कभी भी कवि के मानस तक नहीं पहुँच पाएंगे। इसी अज्ञान का फल हम एक अज्ञानी समझ के रूप में देवदत्त पटनायक, शेल्डन पोलॉक, वेंडी डोनिगर जैसे तथाकथित 'इंडोलॉजिस्ट' की भारतीय ग्रंथों (रामायण, महाभारत) की व्याख्या में पाते हैं। मूल भाषा का ज्ञान न होने के कारण, भारतीय दृष्टि की अज्ञानता के कारण हमारा युवा इन महानुभाओं द्वारा अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों को सत्य समझ बैठता है और इसकी परिणति हींन भावना (Inferiority Complex) , अपनी पहचान को हेय दृष्टि से देखना (Identity Crisis), अपनी भाषाओँ को सीखने हेतु इच्छाशक्ति का अभाव (lack of determination to learn Indian languages) के रूप में होती है। नेगी जी द्वारा रचित इन्हीं कुछ पँक्तियों को आने वाले सैकड़ों वर्षों उपरान्त उस समय की पीढ़ी एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में भी प्रयोग कर सकती है कि कौन से महीनों में उस समय भारत में वर्षा ऋतु होती थी। समय के साथ ऋतु चक्र में प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। ज्ञात रहे कि महाभारत काल में नक्षत्रोँ की जो स्तिथि थी जिसे श्लोकों में वेद व्यास द्वारा लिखा गया है वह आज महाभारत के काल निर्धारण में सहायता कर रही है। नीलेश ओक और बहुत से अन्य महाभारतविद इसे आज प्रयोग में ला रहे हैं। यही भारतीय लेखन परंपरा की निरंतरता है जो भारत को सदैव प्रवाहित होने वाली सभ्यता की जननी बनाती है। 

आभार। 
कॉपी राइट @ विजय गौड़ 
कैलीफॉरनिआ, अमेरिका