कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु भिंडी देर,
वे रुन्दरा कु बि बगत औंण भोल सबेर।।
बस्ग्याल लग्युं च त पाणि सौन्ग्ये कि धैर,
सिन पाणिन नि बगणु भिन्डी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु ......
वीं तैं बाटा-घाटों मा बेर-२ दिख्येणु रै,
कैन मन मा त्वै नि रखणु भिंडी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .......
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .......
कैकि गालि नि खौणि, कैतैं गालि नि दयेणि,
एक-हैंका कु बुरु नि सुचणु भिंडी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .........
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .........
भै-बन्दों मा छ्वटि-म्वटि बात त हूणी रंदन,
अपणों से सिन नि रुसौंण भिंडी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .........
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु .........
रात स्वीणों मा बड़बड़ाणु छौ गबरू बोड़ा,
कखड़ी चुपचाप चोरा, कुकरन भुक्णु भिन्डी देर।।
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु ............
कैतैं रुवै कि तिन हैंसी नि सक्णु ............
विजय गौड़
२९/०३/२०१३
आहा कतका मीठी बोली च हमरी अर आपकी कलम से निकली सुव्नु सीख ....भोत सुंदर विजय सर जी ,सादर नमस्कार !
ReplyDeleteबहुत-२ धन्यबाद। खुसी होंद जब आप लोग लगातार यूं रचनाओ तैं पढना रंदा!!!
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