Saturday 25 July 2020

विजय की बुद्धिजीविता: आलेख ३

क्या भारत में एक सँस्था को ‘हलाल पंजीकरण’ का अधिकार देना व्यवसाय की स्वतंत्रता के नियमों का उल्लंघन और किसी समुदाय विशेष का तुष्टिकरण नहीं है?
मेरा बाल्यकाल की शिक्षाओं में एक प्रमुख शिक्षा थी ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’। इस पंक्ति का प्रभाव मुझ पर इतना हुआ कि मेरा मानस उस प्रत्येक व्यक्ति को शंकित दृष्टि से देखता जो दूसरे मत वालों पर कुछ भी मेरी मान्यता के प्रतिकूल टिप्पणी करता। मैं सोचने लगता कि अवश्य ही ये लोग वैमनस्यग्रस्त लोग हैं। मेरी सोच को और अधिक शक्ति मिलती ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख ईसाई। आपस में हैं भाई-२’ जैंसे सुंदर शब्दों/नारों से। शनैः-२ जीवन यात्रा आगे बढ़ती गयी और बॉलीवुड की फिल्मों से परिचय भी होना आरंभ हुआ। उस से पता चलता कि मौलाना जी कितने सरल और सबका कल्याण सोचने वाले होते हैं। स्मरण करें शोले फिल्म के ए के हंगल, वे मेरे मानस में मौलाना की प्रतिमूर्ति थे। मुझे ये लगता कि वे भी मेरी बूँगी देवी के मंदिर में आरती करवाने वाले बोड़ा जी (पुजारी) जैंसे ही थे और ऐंसे ही सब होते होंगे मौलाना/मौलवी लोग। साथ ही साथ सूचना का दूसरा मुख्य श्रोत बना टेलिविज़न समाचार। एनडीटीवी और आजतक। इन माध्यमों से निरंतर जिस प्रकार हिंदू प्रतीकों (भगवा,तिलक आदि) को प्रयोग करने वाले लोगों को दिखाया जाता (स्मरण करें राम मंदिर से जुड़े विषयों पर इनका प्रसारण, वैलेंटायन डे पर विरोध करते युवाओं का चित्रांकन, इतिहास के नाम पर झूठ दिखाती फिल्मों का विरोध करते लोगों का चित्रांकन) उस से मेरा मानस एक दूसरा ही रूप ले चुका था। इस मानस के साथ आया मैं भारत से अमेरिका। अब जीवन में कुछ समय मिलना आरंभ हुआ तो अपना स्वाध्याय करना आरंभ किया। पहली ही पुस्तक जिस से मेरी अध्ययन की मृग तृष्णा और बढ़ने लगी, वह थी श्री राजीव मल्होत्रा की Breaking India. इसके उपरान्त मेरी स्वयम् की दृष्टि में बड़ा अंतर आया। एक सरल स्वभाव जो बाल्यकाल से मिला था वह अब बातों को सही संदर्भ के साथ देखना आरंभ कर रहा था, लोगों की बातों को विश्लेषण के बाद ही सत्य मानना सीख रहा था।उसके बाद पढ़ी राजीव जी की ही दूसरी कृति ‘Being Different’ और इस पुस्तक ने मुझे अपने बचपन का विश्वास पुनः दिया जो बचपन राम लीलाओं के साथ बड़ा हुआ और उसे भारत का Grand narrative समझता और मेरा मानना है कि वही है भी। परंतु २० से ४० की आयु में जो भी पढ़ा-देखा, उस से जो एक ही दृष्टि से विषयों को देखने की छद्म (पॉप, pop) बुद्धिजीविता उत्पन्न हुयी थी, उससे शुद्धि का अनुभव जँहा स्वयम् के स्तर पर सुंदर है, सामाजिक (मुख्यतः Twitter, Facebook जैंसे पटलों पर) स्तर पर उसने मुझे अब ‘वाम’से ‘दक्षिण’कर दिया है। मूल रूप से मैं तब भी भारतीय था और आज भी (bharatiya lense is neither left nor right. left & right is something again a western construct which Indian intelligencia is using to study Indian hindu society which is not abrahmic in nature)।

अब आते हैं इस आलेख के मुख्य विषय पर जिसके कारण ये भूमिका देनी पड़ी। ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई। आपस में हैं भाई-२’ जो वैज्ञानिक (gene study) और ऐतिहासिक सत्य भी है कि समस्त भारत मूल रूप से सनातन हिंदू ही है। ये जो आज जॉन और तैमूर हो रखे हैं वो भी रामलाल और श्यामलाल जी की वंशावली से ही हैं। इसे ही मूल मानकर इसकी व्याख्या करते हैं। यदि भारत की राज सत्ता भी यह मानती है तो भाई-२ अलग कैंसे? कुछ भाइयों को ये आवश्यकता क्यूँ पड़ रही है कि वे अपनी वंशावली अरब में ढूँढ रहे हैं? हमें तो ये बताया गया कि ऐंसी सोच रखने वाले पाकिस्तान हो गये, क्या ये असत्य था? यदि हमारे प्रथम प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री भाईचारा और गंगा जमुनी तहजीब के प्रणेता थे तो उन्हें इसकी आवश्यकता ही क्यूँ पड़ी? दो भाइयों में तो भाईचारा स्वतः ही होता है, नहीं? मेरे माता-पिता ने तो मुझे कभी नहीं सिखाया कि अपने भाई-बहनों से प्रेम भाव रखो, ये तो नैसर्गिक हो गया। यही आपके साथ भी है ना? तो यह बनावटी बातें क्यूँ करनी पड़ी? क्या इसके मूल में ही कुछ विरोधाभास तो नहीं? क्या ऐंसा तो नहीं कि इनमें से दो भाईओं (मुस्लिम-ईसाई) का मूल कँही और है? वे अपनी प्रेरणा किसी दूसरे सिद्धांत से तो नहीं लेते? यदि ‘हाँ’ तो उस पर चर्चा करना अपराध क्यूँ? जब वे अलगाव का भाव रखते हैं तभी ‘हलाल पंजीकरण’ की आवश्यकता हुई ना? ये तो उचित नहीं ना कि एक भाई तो इतना ‘सेक्युलर’ कि वो अपना प्रेम दिखाने के लिये हलाल विधि से मारे गये पशु (वह पशु जिसे उसकी संस्कृति में मातु तुल्य इसलिये माना जाता है क्यूँकि वह उनकी अर्थ व्यवस्था का मूल रही है) के माँस वाले ‘टूंडे कबाब’ भी खा ले और दूसरा ‘झटका’ खाना ‘हराम’ समझे? ये तो हुई नैतिकता की बात। चलिये अब आते हैं अधिकार (rights) पर जो कि आज की पीढ़ी का ‘new cool’ है। सुना होगा आपने, ‘bro my body, my right’। वैंसे भारतीय दृष्टि अधिकार और कर्तव्य के सामंजस्य पर आधारित है, कदाचित कर्तव्य की ओर तुला कुछ अधिक झुकी है तभी तो आज भी भारतीय माता-पिता बच्चों की शिक्षा और विवाह तक के लिये धनार्जन करता है (हाँ ‘my body, my right’ संस्कृति की प्रवृत्ति इसके विपरीत है)। अधिकार तो सबको समान होना चाहिये ना यदि लोकतंत्र और न्याय आधारित व्यवस्था है तो। फिर ये ‘पर्सनल लॉ बोर्ड’ जैंसी संस्थाएँ पंजीकरण कर कैंसे पैंसे ले रही हैं? यह कार्य सरकारी सँस्था क्यूँ नहीं कर रही जिस से इस से अर्जित धन पूरे राष्ट्र के लिये प्रयोग हो।एक भाई के लिये ये विशेष सुविधा क्यूँ? दूसरे भाई के तो पूजा स्थान का पैंसा भी आप इसी भाई के कल्याण हेतु बनायी स्कीमों में लगा रहे हैं, नहीं? (Hindu temples are still government administered right?)। एक भाई का परिवार न्यायालय में हिंदू मंदिर (सबरीमाला) में उन्हें न आने देने में ‘न्याय’ हेतु जा सकता है और ‘फ्री मीडिया’ पर पूरा सहयोग ‘प्राइम टाइम शो’ के माध्यमों से पाता है तो दूसरी ओर वही ‘लोकतंत्र’ का स्तंभ ‘न्यायालय’ दूसरे भाई के परिवार की ‘न्याय याचिका’ जिसमें वह परिवार की मुख्य धुरी (महिला) को मस्जिद में पुरुषों के साथ नमाज पढ़ने की आज्ञा दिये जाने हेतु जाता है, तो उन्हें ये कहकर लौटा दिया जाता है कि ‘आप उस से प्रभावित नहीं होते’ (you are not a party)। ये कैंसा महिला सशक्तिकरण (feminism) है जँहा एक समुदाय की महिला के लिये साथ में पूजा का अधिकार न होना ‘cool’ और सुंदर परम्परा है और दूसरे भाई के परिवार की महिला का मात्र एक पूजा स्थान में प्रवेश वर्जित होना, सामाजिक कुरीति/पिछड़ापन है जिसे हटाने हेतु टेलिविज़न स्टूडीओ से अनेकों राजा राम मोहन रॉय, विलीयम वेंटिंग से इसे हटाने हेतु पुरजोर अनुग्रह करते प्रतीत हो रहे हैं। हो सकता है आने वाली पीढ़ियाँ इन समाज सुधारकों का नाम भी इतिहास की पुस्तकों में पढ़ें (आज की इतिहास की पुस्तकों में सती प्रथा नाम की मिथ्या को राम मोहन राय और वेंटिंग द्वारा हटाया गया) कि सबरीमाला की कुरीति पर रोक इन महानुभावों ने लगवाकर महिला सशक्तिकरण को नई ऊँचाइयाँ दी और दूसरे परिवार की महिला उस समय भी ‘निकाह हलाला’ जैंसी ‘cool’ परम्पराओं का श्रद्धा से निर्वहन ही कर रही हों।

कैंसे एक छोटे से ठेले पर फल बेच रहे विक्रेता का स्वयम् को ‘हिंदू’ फल विक्रेता कहना और एक पंजीकृत सँस्था द्वारा समर्थित बताना अपराध है? यदि दूसरी कुछ वैसी ही सँस्था ‘हलाल पंजीकरण’ तक दे सकती है? क्या यह एक भाई का ‘सशक्तिकरण’ और दूसरे के प्रति ‘अन्याय’ नहीं है? क्या यह एक लोकतांत्रिक देश में एक समुदाय विशेष को एक समानांतर अर्थव्यवस्था (parellel economy) स्थापित करने की न्यायिक अनुमति नहीं है? और दूसरे को उसके प्रतीकों का प्रयोग करना भी राज्य व्यवस्था द्वारा दंडनीय है। क्या लोकतंत्र में यह होना चाहिये कि कुछ लोग तो मजहब पहनकर पूरे देश में गौरव से भ्रमण करें और सड़कों पर यातायात रोकना तक जन्मसिद्ध अधिकार समझें और दूसरे अपनी पहचान बताने में पहले तो संकोच करें (आधुनिक/सेक्युलर हिंदू परिवारों में भगवा रंग, कलावा, टीका आदि अब uncool है और शेष के मानस में इसे ‘hindu terror’ के रूप में बिठाया जा रहा है) और जो थोड़ा भी प्रदर्शन करे उसे या तो राज्य व्यवस्था बलपूर्वक स्वयम् हटवा दे या कुछ का भीड़ द्वारा वीभत्स अंत भी करवा दे?
ये कुछ यक्ष प्रश्न हैं जिन पर समाज को सोचना आवश्यक है। लेख द्वारा मैं किसी की भावना को आहत नहीं करना चाहता अपितु अपनी प्रश्न करने की पौराणिक सनातन परम्परा का निर्वाह कर रहा हूँ। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मेरा भी अधिकार है, यध्यपि मैं यह लेख अपने कर्तव्य भाव से लिख रहा हूँ। यह कृष्ण-अर्जुन युग से आदि शंकराचार्य से होती हुयी स्वामी विवेकानंद द्वारा मुझ तक पहुँची है और इसी प्रकार आगे बढ़ती रहेगी। मैं पाठकों को भी प्रश्नों हेतु आमंत्रित करता हूँ।
इति समाप्तम। ॐ।
विजय गौड़
कैलीफ़ोरनिया, अमेरिका

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