उत्तराखण्ड, जम्बूद्वीप के भारतखण्ड की एक पौराणिक भूमि जँहा कंकण-कंकण में शंकर हैं, ऐँसा माना जाता है। वह स्थान जँहा आदि शंकराचार्य जब दिग्विजय यात्रा पर निकलते हैं और पुनः समाज के सम्मुख साँस्कृतिक भारत का मानचित्र रखते हैं और पुनर्स्थापना करते हैं भगवान् विष्णु के धाम बद्रीनाथ की। आदि योगी एवँ आदि शंकराचार्य द्वारा चुने ऐंसे ज्ञानमार्गी प्रदेश जो साथ ही ऋषि कण्व जैंसे न जाने कितने ऋषियों के ऋषित्व से धन्य है, में एक शिक्षक परिवार में उनका इस पीढ़ी का पहला बालक जन्म लेता है। दिन था २५ सितम्बर और वर्ष १९६१। माता श्रीमती देवी की आयु उस समय मात्र १८ वर्ष की थी पिता श्री सुरेशानंद गौड़ २१ वर्षीय। दादा श्री चंद्रमणि गौड़ जो कि अब अपनी वृद्धावस्था में थे, के लिये अपनी इस नयी पीढ़ी के आरम्भ का सुःख अवर्णनीय था।
पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रारंभिक शिक्षा एवं जीवन:
पारिवारिक वँशावली के अनुसार यह परिवार भारत के मालवा क्षेत्र से इस देवभूमि में आकर बसता है और ११ पीढ़ी पूर्व पट्टी बूँगी क्षेत्र (जँहा परिवार वर्तमान में भी रहता है) में रहना आरम्भ करता है। पूर्वज रथवा पाण्डे जी की बूँगी में ९ वीं पीढ़ी के इस बालक का नाम रखा जाता है 'विनोद'। माँ अपनी इस पहली संतान के जन्म का संस्मरण सुनाती हैं। कहती हैं की प्रसव पीड़ा होते-२ लम्बा समय हो गया और जब शिशु का जन्म नहीं हो पा रहा था तो गाँव की अनुभवी महिलाओँ ने उनके लिये घर से बाहर खुले आकाश के नीचे एक स्थान की निर्मिति की और माता को वँहा पर आने को कहा। कुछ ही समय पश्चात वहीँ पर खुले आकाश के नीचे 'बवाणी ग्राम' में वह अपने पहले शिशु को जन्म देती हैं। दादा चंद्रमणि जी जो कि अंग्रेजों द्वारा शासित भारत में पहले 'पटवारी' और तत्पश्चात 'अमीन' रहे थे, अब सेवानिवृत्ति के बाद गाँव में ही रहते थे। पिता सुरेशानंद जी अपने पिता के दूसरे विवाह से उत्पन्न संतान थे। दादा चंद्रमणि जी का व्यक्तिगत जीवन अत्यंत कठिनाइयों भरा था। उनकी प्रथम पत्नी से एकमात्र संतान एक पुत्री थीं। उसके बाद परिवार ने दूसरा विवाह सुझाया जिससे तीसरी संतान के रूप में सुरेशानंद जी का जन्म हुआ। उनके उपरान्त एक भाई और एक बहन का जन्म हुआ परन्तु भाई की ४ वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी। जब पिता सुरेशानंद जी की आयु मात्र ४ वर्ष की थी तो माँ उन्हें छोड़कर चली गयीं। बालक सुरेश और अनुजा देवकी को बड़ा करने का पूर्ण भार ८ वर्षीय अग्रजा गणेशी पर आ जाता है। इन्हीं कठिन परिस्तिथियों के कारण पिता सुरेशानंद जी का विवाह मात्र १५ वर्ष की ही आयु (उस समय ७ वीं कक्षा के विध्यार्थी थे) में १२ वर्षीय श्रीमती से करवाना ही पिता को उचित लगा। १२ वर्ष की श्रीमती और अग्रजा गणेशी ने घर का सारा कार्यभार सँभाल लिया। इस से कल्पना की जा सकती है कि वृद्ध दादा के लिये 'विनोद' का जन्म कितना सुखदायी रहा होगा। बालक का जन्म उन्हें अपने वँश के उज्ज्वल भविष्य के सपनों की ओर ले जा रहा था। अपने ध्येय उच्च शिक्षा को समर्पित पिता बालक के जन्म के समय अपनी उपस्तिथि भी सुनिश्चित नहीं कर पाये थे।
विनोद का जन्म एक अत्यंत ही दायित्वनिष्ठ माता की कोख से हुआ। ऐंसी महिला जो १२ वर्ष की अल्पायु में ही एक परिवार का दायित्व अपने कंधों पर ले लेती हैं। दायित्व निर्वाह और सही दिशा में आगे बढ़ने के बीज कदाचित यहीँ से बालक के व्यक्तित्व में पढ़ने आरम्भ हो चुके थे। कालान्तर में यही बालक मात्र अपने अनुजों और परिवार को ही नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण हेतु भी बड़ा दायित्व निर्वहन करता है। कठिन परिस्तिथियों में कैंसे बिना प्रभावित हुये निर्णय लेने हैं, इसकी शिक्षा अपनी माता-पिता प्रदत्त दिनचर्या से बालक को मिलना शैशव काल से ही आरंभ हो गयी।
परिवार पर कठिनाइयाँ सदैव आती ही रहीं और बालक के जन्म के एक वर्ष उपरान्त दादा जी का स्वर्गवास हो गया। पिता ने अपना उच्च शिक्षा का अध्ययन प्रभावित नहीं होने दिया और उनकी रीढ़ बनी पत्नी श्रीमती जो उन्हें बालक की देखभाल और घर के कृषि के दायित्वों से अलिप्त रख रहीं थीं। एक ओर पिता सुरेश अपना परिश्रम शिक्षा के क्षेत्र में कर रहे थे तो दूसरी ओर माँ गाँव के अन्य परिवारों के साथ सामंजस्य स्थापित कर खेती एवं बालक को बड़ा करने का कार्य कर रही थीं। यह दोनों उदाहरण 'विनोद' के व्यक्तित्व में 'आर्गेनाईजेशन' और 'विज़न' की कोपलों का रोपण कर रहे थे। माता कृषिका और पिता शिक्षक। कुशाग्र बालक दोनों के महत्व को समझा और दोनोँ ही शिक्षाओं को आत्मसात करने लगा।
पिता की नियुक्ति राजकीय इण्टर मीडिएट कॉलेज, बढ़खेत में 'लेक्चरर' के पद पर हो गयी और २६ वर्ष की आयु में ही उप-प्रधानाचार्य का कार्य भार भी मिल गया। बढ़खेत की दूरी बवाणी गाँव से लगभग ३० किलोमीटर से अधिक रही होगी। पिता सप्ताह के अंत में पैदल गाँव आते और आरंभ में बढ़खेत जाते। ४ वर्ष की आयु से 'विनोद' भी इस दिनचर्या का भाग बन गए। उनका जीवन अब ननिहाल (द्वारी गाँव) और बवाणी से बढ़खेत की यात्रा के साथ बीतने लगा। द्वारी से बढ़खेत की दूरी अधिक न होने के कारण पिता छोटे बालक को उसके ननिहाल छोड़ते और स्वयँ सप्ताह के अंत में अपने गाँव आते जाते रहते थे। तीन से चार सप्ताह में उनका भी पिता के साथ अपनी माँ से मिलने जाना होता। इसी दिनचर्या के साथ बालक की प्रारम्भिक शिक्षा संपन्न हुई। इस बीच परिवार में एक छोटी बहन का भी जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया 'पुष्पा'। बड़े भाई से ५ वर्ष उपरांत आई इस अनुजा से भाई को अत्यंत स्नेह था।
पिता और पुत्र का जीवन एक नया मोड़ लेता है। जिस समय बढ़खेत एक उच्चतम माध्यमिक (इण्टर मीडिएट) विद्यालय के रूप में स्थापित था, हल्दूखाल (पैतृक गाँव का बाजार जँहा पर शिक्षण व्यवस्था और कुछ छोटी-२ दुकानें होती हैं) में केवल ८वीं तक की शिक्षा (मिडिल) उपलब्ध थी। बूंगी क्षेत्र में अब सभी बुद्धिजीवी जनों को एक अच्छे शिक्षा संस्थान की आवश्यकता दिखनी प्रारंभ हो चुकी थी परंतु इस कार्य हेतु एक कुशल नेतृत्व की भी आवश्यकता थी। क्षेत्र ने इस कार्य हेतु सबसे उपयुक्त व्यक्ति उच्च शिक्षित (मास्टर इन आर्ट्स (अर्थशास्त्र), मास्टर इन आर्ट्स (अंग्रेजी), बी टी (शिक्षण में स्नातक, बैचलर्स इन टीचिंग) सुरेशानंद जी में देखा। क्षेत्रीय जनमानस की ओर से लगातार हो रही माँग को गौड़ जी (क्षेत्र में प्रचलित नाम) ठुकरा न सके एवं अंततः १९६८ में अपनी उच्चतम माध्यमिक विद्यालय के सह-प्रधानाचार्य की नौकरी जो आपको बेहतर एवं सफल भविष्य की ओर ले जा रही थी, का त्याग कर चुनौतियों से परिपूर्ण मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक का दायित्व लेने हल्दूखाल चले आये। लक्ष्य यही कि बूंगी पट्टी में एक उच्चकोटि का शिक्षण संस्थान स्थापित कर सकें।
शीघ्र ही अपने अथक प्रयास और क्षेत्रीय जनमानस के सहयोग से गौड़ जी हल्दूखाल में १० वीं तक की शिक्षा आरम्भ करवा देते हैं। विनोद अपनी छठवीं से १० वीं की शिक्षा इसी विध्यालय से लेते हैं। इस समयांतराल में परिवार में पुष्पा के बाद चार और भाई-बहनों का जन्म होता है जिनमें से उनके तुरंत बाद के एक भाई और एक बहन की मृत्यु हो जाती है परन्तु शेष दोनों ही भाई 'संजय' और 'अजय' परिवार में अपनी जीवन यात्रा आरम्भ कर देते हैं। ११वीं और १२ वीं की शिक्षा लेने विनोद पुनः बढ़खेत जाते हैं और क्षेत्र में अभी तक एक मेधावी क्षात्र के रूप में स्थापित हो चुके होते हैं। ऐंसा विध्यार्थी जिस पर न मात्र माता-पिता अपितु समस्त शिक्षक समाज और क्षेत्र को गौरव था और जिस से सभी को उच्च अपेक्षाएँ थीं।
विनोद इन आकांक्षाओं पर खरे उतरते हैं और १२ वीं के पश्चात 'गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्व विध्यालय ' जैंसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान में कृषि में स्नातक करने हेतु प्रवेश पाने में सफल होते हैं। माता-पिता के लिये यह अत्यंत हर्ष का विषय था और इसी बीच परिवार में सबसे छोटे सदस्य का भी आगमन होता है, शिशु का नाम रखा जाता है विजय।
मेधावी विनोद:
भारतीय परम्परा में कहा जाता है कि 'पूत के पाँव पालने से ही दिखने लगते हैं' और यह विनोद पर पूर्ण रूपेण सत्य बैठने वाली उक्ति है। बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि स्पष्ट दिखने लगी थीं। उनकी प्रारंभिक कक्षाओं की एक शिक्षिका का कहना है कि चौथी कक्षा में ही विनोद पाँचवीं कक्षा के विद्यार्थियों के समकक्ष ज्ञान रखते थे। इसका उन्हें विशेष उपहार भी मिला और उन्हें चौथी कक्षा में ६ माह के पश्चात ही पाँचवीं कक्षा में प्रोन्नत कर दिया गया। इस प्रकार उन्होंने एक ही वर्ष में दो कक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं।
प्रेरक विनोद:
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