Monday 9 September 2013

"लोग म्येरा गौं का"

दगिड्यो,

कुच दिन पैलि मिथैं एक बीर रस कि बड़ी भलि कविता पढ़ना कु मिलि, कवि छाया  "बल्ली सिंह चीमा" अर कविता छै:-

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के,

पूरि कविता पौढ़ी कि मिथैं बड़ु भलु लगि पण वे हि बगत मिथैं अपणा मुल्कौ (उत्तराखंड) ख्याल ऐ ग्ये, अर याद ऐ अज्क्याल कि सामजिक स्तिथि। मीं स्ये रये नि ग्ये बिन लिख्याँ अर बीर रस क जगा मा वास्तविक रस (सच्चु रस) मा लिखणै कोसिस कारि, जु बि मिन घौर फुण्ड देखि, यीँ कविता मा लिख्युं च. आप लोग प्रतिक्रिया टक्क लगै दियाँ। …………………  विजय गौड़  


राँका बालि रतब्याँण मि जाणान लोग म्यारा गौं का -२ 
खाल -धारों बस "ठेका" खुज्याणा लोग म्यारा गौं का - २ 

देखि ठेका म लग्युं तालु, हिकमत नि हरणा जमा बि -२ 
अफ़ि छंदड़ो मा, कच्ची बणै प्याणा, लोग म्यारा गौं का - २ 

ब्यो-पगिनी , बार-त्योवारों 'दारु दिब्ता' कि पुजै पैल -२ 
अब त म्वरण मा बि, 'पवा' लगाणा, लोग म्यारा गौं का - २ 

कुच कनै कि धाद द्येणु, मुलुक हैरि डांडी- कांठी - २ 
सरीं बौग, बस बुग्ठ्या -बोतल लगाणा, लोग म्यारा गौं का - २ 

स्कुल्या, मास्टर, बाबू, दफ्तर सबि मिस्याँ, यख छुटु नि क्वी - २ 
कथ्गै त रातिम बि, कुलिणौ इ राणा, लोग म्यारा गौं का - २ 

चकडैत चलणा छि चाल, बुणदन जाल हर चुनौ मा,
कच्चि - पक्किम छन बिकेणा, लोग म्यारा गौं का,
   
कब खुललि य कालि रात, कब मिट्यालु असगार यु -२ 
औ विधाता जरा त्वी बदिल द्ये, जोग म्यारा गौं का - २ 

Copyright@विजय गौड़ 
०९। ०९। २०१३ 

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