ऐंच हिमाल बीटिंन, माँ धै च लगाणी,
दयवतों कि धरती फेर भगीरथ खुज्याणी।।
कख छाँ उन्द बगणा, अफसणि अफ़ी ठगणा,
स्यीं उंदार छोडि, उकाल किलै नि लगणा?
देखा सब्यों का चुल्लों मा आग भुबराणी,
ऐंच हिमाल बीटिंन, माँ धै च लगाणी।
सूनि तिबरी-डंडयालि, रीति रौलि-नवालि,
अन्धेरों मा डुब्यीं छन, ख्वै ग्ये झणी कख उज्यालि,
बौडी कि आवा, कूड़ी-पुन्गड़ी भट्याणी,
ऐंच हिमाल बीटिंन, माँ धै च लगाणी।
तुम मा नि लगाण, त कैमा लगाण,
ये मनै पिड़ा मिन कैथैं सुणाण,
रवे रवे कि सुखि ग्ये यूं आख्यों कु पाणी,
ऐंच हिमाल बीटिंन, माँ धै च लगाणी।
क्वी त अब सोचा, तुमरू क्वी गौं चा,
जलमभूमि छोड़ी, कख छाँ तुम पौन्च्याँ?
सियाँ छाँ सुनिंद, ब्वै कि खुद नि खुदयाणी?
ऐंच हिमाल बीटिंन, माँ धै च लगाणी।
स्यीं निंद से उट्ठ, अब ह्वैजा एकजुट,
हैंकि गंगा थैं लाणु, बोटा त मुट्ट,
वेन पुरखा तारिन, हैंकी पुश्त तिन बचाणी,
दयवतों कि धरती फेर भगीरथ खुज्याणी।।
विजय गौड़
20/03/2013
भोत सुवाणु लायख च आपन सर ,सादर नमस्कार !
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