यूँ तो अब मैंने शायरी छोड़ दी है लेकिन आज लिखना ज़रूरी हो गया। ये ‘बड़ी शख़्सियत’ मुनव्वर’ राणा कुछ ऐंसा कह गये जिसका उनकी ही ज़ुबान में ज़वाब देना लाज़मी है, वक़्त की फ़रमाइश है। जब तलक ये अपनी सियासत पर ही बयानबाज़ी/शायरी करते थे, तब तलक कुछ कहना ठीक नहीं था, अब इन्होंने दावत दी है तो ‘शुक्रिया’ तो कहना ही होगा। ये लीजिये हमारा भी ‘शुक्रिया’।
मुनव्वर!! ये नफ़रतों के बाज़ार मत बेचों,
जँहा हाथ थामने की ज़रूरत हो,
वँहा क़त्ल के औज़ार मत बेचो
जिस महफ़िल में कुछ दिन पहले ‘माँ’ बेचा करते थे,
अब उसी में ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का अख़बार मत बेचो।
अच्छा नहीं ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ की नींव का नम होना,
इसके लिये ‘संबित’ है गुनहगार, मत बेचो।
तुम तो ‘भाईचारे’ की चलती-फिरती मिसाल थे?
अब ये ३५ करोड़ ‘भाई’ और १०० करोड़ ‘चारे’ का संसार मत बेचो।
ये ‘कोरोना’ सरकार नहीं है जो ‘वोट’ समझे,
इसलिये ये अपना ‘मजहबी’ बुख़ार मत बेचो।
हमने देखा है ‘तराना ए हिंद’ को ‘तराना ए मिल्ली’ बनते,
अब तुम भी ‘सरज़मीं ए हिंद’ में वो ‘इकबाली हथियार’ मत बेचो।
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@विजय गौड़
१४/०५/२०२०
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