ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।
ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।।
ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।।
दोस्तों..
आज मेरे जेहन में बस आखिरियत का दिन है और मैं जानता हूँ कि आने वाली ज़िन्दगी में हम सभी ने दीन के काम का सोच रखा है, लेकिन मैंने, मैंने अपने लिए उस से ज्यादा कुछ सोचा है और आज मुझे बार बार उसी का खयाल आ रहा है..
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा
बेटा दीनों-ईमानी काम करेगा
मगर ये तो, कोई ना जाने
कितना करेगा , कैंसे कहाँ..
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा !!!!!!!
१)
लगे हैं मिल के, सब यार अपने
सबके दिलों में, यही अरमान
कोई बनाये 'pK' कभी तो
कोई 'रईस', कोई 'बजरंगी भाईजान'
कोई तबलीगी का काम करेगा
कोई इंटेलेक्चुअल बनके 'तैमूर' जनेगा
मगर ये तो, कोई न जाने अपनी तो मंज़िल, दारुल इस्लाम ...
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा !!!!!!!
२)
मेरा तो सपना, है अल तकैया
'काफिर' की लड़की, और 'लव जिहाद'
मासूम बनके, बहकाना उसको
फिर कुछ दिन में तलाक- तलाक
बन्दा ये खूबसूरत काम करेगा
दीनी दुनिया में अपना नाम करेगा
मेरी नज़र से देखो तो यारों
जन्नत ही मंज़िल और कुछ कहाँ
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा !!!!!!!
@ Vijay Gaur
उत्तराखण्ड, जम्बूद्वीप के भारतखण्ड की एक पौराणिक भूमि जँहा कंकण-कंकण में शंकर हैं, ऐँसा माना जाता है। वह स्थान जँहा आदि शंकराचार्य जब दिग्विजय यात्रा पर निकलते हैं और पुनः समाज के सम्मुख साँस्कृतिक भारत का मानचित्र रखते हैं और पुनर्स्थापना करते हैं भगवान् विष्णु के धाम बद्रीनाथ की। आदि योगी एवँ आदि शंकराचार्य द्वारा चुने ऐंसे ज्ञानमार्गी प्रदेश जो साथ ही ऋषि कण्व जैंसे न जाने कितने ऋषियों के ऋषित्व से धन्य है, में एक शिक्षक परिवार में उनका इस पीढ़ी का पहला बालक जन्म लेता है। दिन था २५ सितम्बर और वर्ष १९६१। माता श्रीमती देवी की आयु उस समय मात्र १८ वर्ष की थी पिता श्री सुरेशानंद गौड़ २१ वर्षीय। दादा श्री चंद्रमणि गौड़ जो कि अब अपनी वृद्धावस्था में थे, के लिये अपनी इस नयी पीढ़ी के आरम्भ का सुःख अवर्णनीय था।
पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रारंभिक शिक्षा एवं जीवन:
पारिवारिक वँशावली के अनुसार यह परिवार भारत के मालवा क्षेत्र से इस देवभूमि में आकर बसता है और ११ पीढ़ी पूर्व पट्टी बूँगी क्षेत्र (जँहा परिवार वर्तमान में भी रहता है) में रहना आरम्भ करता है। पूर्वज रथवा पाण्डे जी की बूँगी में ९ वीं पीढ़ी के इस बालक का नाम रखा जाता है 'विनोद'। माँ अपनी इस पहली संतान के जन्म का संस्मरण सुनाती हैं। कहती हैं की प्रसव पीड़ा होते-२ लम्बा समय हो गया और जब शिशु का जन्म नहीं हो पा रहा था तो गाँव की अनुभवी महिलाओँ ने उनके लिये घर से बाहर खुले आकाश के नीचे एक स्थान की निर्मिति की और माता को वँहा पर आने को कहा। कुछ ही समय पश्चात वहीँ पर खुले आकाश के नीचे 'बवाणी ग्राम' में वह अपने पहले शिशु को जन्म देती हैं। दादा चंद्रमणि जी जो कि अंग्रेजों द्वारा शासित भारत में पहले 'पटवारी' और तत्पश्चात 'अमीन' रहे थे, अब सेवानिवृत्ति के बाद गाँव में ही रहते थे। पिता सुरेशानंद जी अपने पिता के दूसरे विवाह से उत्पन्न संतान थे। दादा चंद्रमणि जी का व्यक्तिगत जीवन अत्यंत कठिनाइयों भरा था। उनकी प्रथम पत्नी से एकमात्र संतान एक पुत्री थीं। उसके बाद परिवार ने दूसरा विवाह सुझाया जिससे तीसरी संतान के रूप में सुरेशानंद जी का जन्म हुआ। उनके उपरान्त एक भाई और एक बहन का जन्म हुआ परन्तु भाई की ४ वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी। जब पिता सुरेशानंद जी की आयु मात्र ४ वर्ष की थी तो माँ उन्हें छोड़कर चली गयीं। बालक सुरेश और अनुजा देवकी को बड़ा करने का पूर्ण भार ८ वर्षीय अग्रजा गणेशी पर आ जाता है। इन्हीं कठिन परिस्तिथियों के कारण पिता सुरेशानंद जी का विवाह मात्र १५ वर्ष की ही आयु (उस समय ७ वीं कक्षा के विध्यार्थी थे) में १२ वर्षीय श्रीमती से करवाना ही पिता को उचित लगा। १२ वर्ष की श्रीमती और अग्रजा गणेशी ने घर का सारा कार्यभार सँभाल लिया। इस से कल्पना की जा सकती है कि वृद्ध दादा के लिये 'विनोद' का जन्म कितना सुखदायी रहा होगा। बालक का जन्म उन्हें अपने वँश के उज्ज्वल भविष्य के सपनों की ओर ले जा रहा था। अपने ध्येय उच्च शिक्षा को समर्पित पिता बालक के जन्म के समय अपनी उपस्तिथि भी सुनिश्चित नहीं कर पाये थे।
विनोद का जन्म एक अत्यंत ही दायित्वनिष्ठ माता की कोख से हुआ। ऐंसी महिला जो १२ वर्ष की अल्पायु में ही एक परिवार का दायित्व अपने कंधों पर ले लेती हैं। दायित्व निर्वाह और सही दिशा में आगे बढ़ने के बीज कदाचित यहीँ से बालक के व्यक्तित्व में पढ़ने आरम्भ हो चुके थे। कालान्तर में यही बालक मात्र अपने अनुजों और परिवार को ही नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण हेतु भी बड़ा दायित्व निर्वहन करता है। कठिन परिस्तिथियों में कैंसे बिना प्रभावित हुये निर्णय लेने हैं, इसकी शिक्षा अपनी माता-पिता प्रदत्त दिनचर्या से बालक को मिलना शैशव काल से ही आरंभ हो गयी।
परिवार पर कठिनाइयाँ सदैव आती ही रहीं और बालक के जन्म के एक वर्ष उपरान्त दादा जी का स्वर्गवास हो गया। पिता ने अपना उच्च शिक्षा का अध्ययन प्रभावित नहीं होने दिया और उनकी रीढ़ बनी पत्नी श्रीमती जो उन्हें बालक की देखभाल और घर के कृषि के दायित्वों से अलिप्त रख रहीं थीं। एक ओर पिता सुरेश अपना परिश्रम शिक्षा के क्षेत्र में कर रहे थे तो दूसरी ओर माँ गाँव के अन्य परिवारों के साथ सामंजस्य स्थापित कर खेती एवं बालक को बड़ा करने का कार्य कर रही थीं। यह दोनों उदाहरण 'विनोद' के व्यक्तित्व में 'आर्गेनाईजेशन' और 'विज़न' की कोपलों का रोपण कर रहे थे। माता कृषिका और पिता शिक्षक। कुशाग्र बालक दोनों के महत्व को समझा और दोनोँ ही शिक्षाओं को आत्मसात करने लगा।
पिता की नियुक्ति राजकीय इण्टर मीडिएट कॉलेज, बढ़खेत में 'लेक्चरर' के पद पर हो गयी और २६ वर्ष की आयु में ही उप-प्रधानाचार्य का कार्य भार भी मिल गया। बढ़खेत की दूरी बवाणी गाँव से लगभग ३० किलोमीटर से अधिक रही होगी। पिता सप्ताह के अंत में पैदल गाँव आते और आरंभ में बढ़खेत जाते। ४ वर्ष की आयु से 'विनोद' भी इस दिनचर्या का भाग बन गए। उनका जीवन अब ननिहाल (द्वारी गाँव) और बवाणी से बढ़खेत की यात्रा के साथ बीतने लगा। द्वारी से बढ़खेत की दूरी अधिक न होने के कारण पिता छोटे बालक को उसके ननिहाल छोड़ते और स्वयँ सप्ताह के अंत में अपने गाँव आते जाते रहते थे। तीन से चार सप्ताह में उनका भी पिता के साथ अपनी माँ से मिलने जाना होता। इसी दिनचर्या के साथ बालक की प्रारम्भिक शिक्षा संपन्न हुई। इस बीच परिवार में एक छोटी बहन का भी जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया 'पुष्पा'। बड़े भाई से ५ वर्ष उपरांत आई इस अनुजा से भाई को अत्यंत स्नेह था।
पिता और पुत्र का जीवन एक नया मोड़ लेता है। जिस समय बढ़खेत एक उच्चतम माध्यमिक (इण्टर मीडिएट) विद्यालय के रूप में स्थापित था, हल्दूखाल (पैतृक गाँव का बाजार जँहा पर शिक्षण व्यवस्था और कुछ छोटी-२ दुकानें होती हैं) में केवल ८वीं तक की शिक्षा (मिडिल) उपलब्ध थी। बूंगी क्षेत्र में अब सभी बुद्धिजीवी जनों को एक अच्छे शिक्षा संस्थान की आवश्यकता दिखनी प्रारंभ हो चुकी थी परंतु इस कार्य हेतु एक कुशल नेतृत्व की भी आवश्यकता थी। क्षेत्र ने इस कार्य हेतु सबसे उपयुक्त व्यक्ति उच्च शिक्षित (मास्टर इन आर्ट्स (अर्थशास्त्र), मास्टर इन आर्ट्स (अंग्रेजी), बी टी (शिक्षण में स्नातक, बैचलर्स इन टीचिंग) सुरेशानंद जी में देखा। क्षेत्रीय जनमानस की ओर से लगातार हो रही माँग को गौड़ जी (क्षेत्र में प्रचलित नाम) ठुकरा न सके एवं अंततः १९६८ में अपनी उच्चतम माध्यमिक विद्यालय के सह-प्रधानाचार्य की नौकरी जो आपको बेहतर एवं सफल भविष्य की ओर ले जा रही थी, का त्याग कर चुनौतियों से परिपूर्ण मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक का दायित्व लेने हल्दूखाल चले आये। लक्ष्य यही कि बूंगी पट्टी में एक उच्चकोटि का शिक्षण संस्थान स्थापित कर सकें।
शीघ्र ही अपने अथक प्रयास और क्षेत्रीय जनमानस के सहयोग से गौड़ जी हल्दूखाल में १० वीं तक की शिक्षा आरम्भ करवा देते हैं। विनोद अपनी छठवीं से १० वीं की शिक्षा इसी विध्यालय से लेते हैं। इस समयांतराल में परिवार में पुष्पा के बाद चार और भाई-बहनों का जन्म होता है जिनमें से उनके तुरंत बाद के एक भाई और एक बहन की मृत्यु हो जाती है परन्तु शेष दोनों ही भाई 'संजय' और 'अजय' परिवार में अपनी जीवन यात्रा आरम्भ कर देते हैं। ११वीं और १२ वीं की शिक्षा लेने विनोद पुनः बढ़खेत जाते हैं और क्षेत्र में अभी तक एक मेधावी क्षात्र के रूप में स्थापित हो चुके होते हैं। ऐंसा विध्यार्थी जिस पर न मात्र माता-पिता अपितु समस्त शिक्षक समाज और क्षेत्र को गौरव था और जिस से सभी को उच्च अपेक्षाएँ थीं।
विनोद इन आकांक्षाओं पर खरे उतरते हैं और १२ वीं के पश्चात 'गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्व विध्यालय ' जैंसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान में कृषि में स्नातक करने हेतु प्रवेश पाने में सफल होते हैं। माता-पिता के लिये यह अत्यंत हर्ष का विषय था और इसी बीच परिवार में सबसे छोटे सदस्य का भी आगमन होता है, शिशु का नाम रखा जाता है विजय।
मेधावी विनोद:
भारतीय परम्परा में कहा जाता है कि 'पूत के पाँव पालने से ही दिखने लगते हैं' और यह विनोद पर पूर्ण रूपेण सत्य बैठने वाली उक्ति है। बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि स्पष्ट दिखने लगी थीं। उनकी प्रारंभिक कक्षाओं की एक शिक्षिका का कहना है कि चौथी कक्षा में ही विनोद पाँचवीं कक्षा के विद्यार्थियों के समकक्ष ज्ञान रखते थे। इसका उन्हें विशेष उपहार भी मिला और उन्हें चौथी कक्षा में ६ माह के पश्चात ही पाँचवीं कक्षा में प्रोन्नत कर दिया गया। इस प्रकार उन्होंने एक ही वर्ष में दो कक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं।
प्रेरक विनोद:
सर्वप्रथम तो भारतीय सनातन सभ्यता से जुड़े और विश्व शान्ति के प्रत्येक प्रहरी को ६ दिसम्बर अपितु 'शौर्य दिवस' की शुभकामनायें। ऐंसा दिन जब एक आतताई द्वारा राष्ट्रनायक श्री रामचंद्र जी के जन्मस्थान पर बनाये गये ढाँचे का अस्तित्व कारसेवकों द्वारा समाप्त कर दिया गया और अब उस स्थान पर पुनः विश्व शाँति के, शौर्य के प्रतीक स्थल का पुनर्निर्माण आरम्भ हो चुका है। इस शुभ दिवस पर कुछ सामयिक विषयों पर जोकि भारतीय सभ्यता से जुड़े हैं, पर अपने विचार लिखना अति आवश्यक हैं और वे विषय इस प्रकार हैं।
प्रथम विषय जिस पर लम्बे समय से लिखना चाह रहा था परन्तु उचित समय नहीं आ पाया। आज वह अवसर मुझे दिया नवाब पटौदी के पुत्र सैफ अली खान ने। अपनी आने वाली फिल्म 'आदिपुरुष' के सन्दर्भ में उन्होंने साक्षात्कार दिया है और उनका कहना है, 'We will make Ravan Humane, justify his abduction of Sita'. पहले मुझे लगा कि छोड़ो इन पर क्या टिप्पणी देनी है लेकिन पुनः सोचा कि इन फिल्मों का जनमानस पर वर्तमान में कितना प्रभाव है, उसे आज के भारतीय समाज का मूल्याँकन कर समझा जा सकता है। अतः इस पर लिखना आवश्यक हो गया। सैफ अली खान स्वयं को जिस 'कुरानिक सभ्यता' से जोड़ते हैं (उनका नाम जिस अनुसार है) उसमें एक शब्द है 'अली' जोकि इनके नाम में भी है , क्या कभी यही सैफ उस अली की कहानी पर सच्ची फिल्म बना पायेंगे? 'अली' के बच्चों का कत्ल करने वाले के बारे में और उसकी प्रेरणा किस साहित्य से आती है, उस पर कुछ कह पायेंगे यदि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और रचनात्मक स्वतंत्रता की बात करते हैं तो ? क्या यही सैफ यदि कल इनकी पुत्री को कोई अगवा कर लेता है उस लुटेरे/आततायी का "humane" पक्ष रखने की बात करेंगे? सुशांत सिंह राजपूत और इनकी पुत्री के संबंधों और उसकी परिणति के बारे में इन्हीं के फिल्म उद्योग से किस प्रकार की सूचनाएँ आयी उससे जनसामान्य अनभिज्ञ नहीं है। क्या यही बॉलीवुड 'इस्लाम' पर अं'डरस्टैंडिंग मुहम्मद' जैंसी पुस्तक के अनुसार कोई फिल्म 'रचनात्मक स्वंतंत्रता' के नाम पर बना सकता है? क्या यही बॉलीवुड/सैफ 'Satanic Verses' लिखने वाले सलमान रुश्दी की पुस्तक पर बैन लगने और फतवा जारी किये जाने पर कुछ कह रहा था? क्या चार्ली हेब्डो के स्टॉफ की हत्याओं के समय या अभी वर्तमान में एक शिक्षक की इन्हीं सैफ के मजहब वालों द्वारा पेरिस में हत्या करने पर इन्होंने कुछ मानवता की बात की या इनकी टिप्पणी मात्र हिन्दू समाज तक ही सीमित है?
स्मरण हो कि इसी बॉलीवुड से बहुत से छद्म हिन्दू कठुआ की घटना के समय प्लेकार्ड लेकर अपने हिन्दू होने पर दुःख प्रकट कर रहे थे पर क्या यही सैफ या इनकी 'तथाकथित हिन्दू' बेगम पेरिस में शिक्षक की हत्या किये जाने पर 'इस्लाम' को उत्तरदायी ठहरा रहे थे जबकि यह कृत्य मात्र इस्लाम के प्रोफेट के लिए कुछ कहे जाने के कारण हुआ था। इन सब प्रश्नों का उत्तर है "नहीं" क्यूंकि उस समय ये सब 'एथीस्ट' वाला चोला ओढ़ लेंगे।
यही बॉलीवुड भारतीय समाज को पितृसत्तावादी (patriarchal) बताकर उसे समाप्त करने की पहल की बात करता है (सुशांत सिँह की तथाकथित महिला मित्र की पोशाक पर लिखा कोट आपने देखा ही होगा या फिर ट्विटर के सीईओ की भारत यात्रा के समय का नैरेटिव) परन्तु मैं इनका दोहरा चरित्र इन्हीं 'सैफ अली' के उदाहरण से समझाता हूँ। कहते हैं ना कि 'Charity begins at Home'. इनके पिता का नाम था मंसूर अली खान। विवाह हुआ प्रेम के नाम पर एक हिन्दू से जोकि स्वयं इसी फिल्म उद्योग से थी और शर्मिला टैगोर हो गयीं 'आयशा बेग़म'. पुत्र हुआ 'सैफ अली खान' पुत्री 'सोहा अली खान' . प्रेम विवाह था तो शर्मिला को आयशा होने की आवश्यकता क्यूँ हुयी? क्या किसी भी बच्चे का नाम शर्मिला 'रवीन्द्र' या 'लक्ष्मी' रख पाईं यदि यह पितृसत्तात्मक परिवार नहीं था तो? भारत में क्रिकेटर और फ़िल्मी नायक/नायिकाएँ तो तथाकथित खुले विचारों वाले होते हैं ना? शर्मिला को अपनी विवाह पूर्व की पहचान भी छोड़नी पड़ी और अपने बच्चों के नाम रखने का अधिकार भी नहीं मिला और 'my rights' की बात सर्वाधिक यही 'आधुनिक' करते हैं। अब इनकी अगली पीढ़ी में चलते हैं। स्वयँ 'सैफ' पहला विवाह करते हैं 'अमृता सिंह' से। बच्चों के नाम 'इब्राहीम अली खान' और सारा अली खान। अब तो दूसरी पीढ़ी में भी किसी अन्य समुदाय से विवाह हुआ था तो एक बच्चे का नाम 'शविंदर' या 'रविंदर' ही रख लेते पितृ सत्ता के विरुद्ध (सेक्युलर मूल्यों के अनुसार)? और आगे देखेँ। 'सैफ' मियाँ अब अमृता को छोड़ देते हैं और पुनः चलते हैं आगे की खेती करने। विवाह होता है 'करीना कपूर' से और अबकी बार बच्चे का नाम 'तैमूर अली खान' . उनकी क्रांतिकारी पत्नी पुत्र का नाम 'पृथ्वीराज कपूर' या थोड़ा मातृ सत्ता थोड़ा सेक्युलर होते हुये पृथ्वीराज अली खान ही रखवा देतीं ? स्मरण हो कि इसी बॉलीवुड में नीलिमा अजीम अपने हिन्दू पति पंकज कपूर से उत्पन्न बच्चे का नाम 'शाहिद' रखवा लेती हैं वह शाहिद भी है और कपूर भी क्यूंकि पिता पंकज है।
दूसरा विषय जिस पर कुछ पंक्तियाँ लिखना आवश्यक है वह है किसान रैली में आये योगराज सिंह पर। यह भी विषय सनातन सभ्यता का अतः उत्तर आवश्यक। बिल पर बात होती तो वो उनके और सत्ता के बीच का विषय था।
उनका कथन है कि, 'ये वो कौम है जिन्होंने हज़ारों साल गुलामी की, इनकी औरतें टके-टके के भाव बिकती थीं' तो सुनों आर्थर मक्लिफ्फ़ के शिष्यो! हम तो हैं १० गुरुओं और गुरु ग्रन्थ साहब को मान ने वाले और तुम बोल रहे हो अपने गुरु मक्लिफ्फ़ की भाषा। हमारे गुरुओं ने तो शीश दे दिये सनातन के लिए और तुम्हारे वाले ने तुम्हारी मति ऐंसी पलटी कि तुम अब स्वयं से ही घृणा करने लगे हो। हम वो हैं जो हज़ारों साल के बाद भी अपना मूल नहीं भूले और आज भी युद्ध कर रहे हैं धर्म (not religion) के लिये। रही बात 'औरत' की तो तुम स्वयँ अपने अंतर्मन में झाँको और अपनी पत्नी के साथ क्या किया, स्वयं से पूछो? सारा भारत जानता है टी बी माध्यमों से तुम्हारी पत्नी ने क्या कहा तुम्हारे बारे में। सनातन सभ्यता में स्त्री को 'औरत' नहीं कहते और न ही माल ए गनीमत इसलिये नारी को वस्तु समझने वाली सोच जिस गुरु ने तुममें डाली, तुम उसी की वाणी बोलोगे। तुम्हें अंतिम सुझाव और वह ये कि शीघ्र नाम बदल लो, 'योगराज' शोभा नहीं देता तुम्हें। योग जिस सनातन परंपरा का शब्द है वह 'एकात्म' की बात करती है और 'योग' का मूल है 'प्रकृति के साथ समन्वय' परन्तु तुम्हारी बुद्धि में इस प्रकृति स्वरूपा 'नारी' के लिये जो है वह भारतीय नहीं।
आलेख पढ़ने वाले सभी लोगों से यही विनती कि तथ्यों के आधार पर ऐंसे लोगों को उत्तर अवश्य दें, मैं वही प्रयास कर रहा हूँ।
भारत माता की जय, वन्दे मातरम्, जय श्रीराम!!
विजय गौड़
दिसम्बर ०६, २०२०
भारतवर्ष को 'तथाकथित स्वतंत्रता' मिले ७० से अधिक वर्ष हो चुके हैं परन्तु यह शताब्दियों पुरानी सभ्यता वाला राष्ट्र आज भी मानसिक रूप से स्वतंत्र हो पाया है, इस पर यदि चिंतन करें तो अत्यधिक विरोधाभास पायेंगे। स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि १९४७ में खण्डित किये जाने के बाद सत्ता हस्ताँतरण (transfer of power) के माध्यम से उत्पन्न तथाकथित 'मॉडर्न इंडिया' आज भी 'भारत' से स्वयँ को नहीं जोड़ पाया है। क्या यह 'संबिधान' के नाम पर जो एक पुस्तक जिसका मूल स्वभाव ही अब्राहमिक है (सनातन सभ्यता में यह एक 'किताब' की संकल्पना है ही नहीं, इसकी प्रवृत्ति तो निरंतर प्रवाह वाली नदी सी है कि जैंसे ही प्रवाह में व्यवधान आने से दुर्गन्ध उत्पन्न होना आरम्भ हुयी, यह अपनी नयी दिशा ले ले परन्तु मूल को सदैव जीवित रखते हुये), को जनसामान्य से सम्पूर्ण चर्चा के बाद इसका स्वरुप दिया गया या बहुत से अन्य देशों के संबिधानों को मिलाकर कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा सा इसे इस राष्ट्र पर थोप दिया गया? प्रतीत तो ऐंसा ही होता है क्यूँकि जनमानस में यह डाला जाने लग गया कि आपके एक 'राष्ट्रपिता' हैं और उसके उपरान्त एक 'राष्ट्रचाचा' भी। ध्यान रहे कि सनातन समाज १००० वर्ष की परतंत्रता के बाद भले ही कुछ शक्ति अभाव में पहुँच चुका हो, उसका अनाज चाहे द्वितीय विश्व युद्ध लड़ने के लिए भेजकर 'अकाल' उत्पन्न कर दिया गया हो, परन्तु उसके बाद भी वह इस संकल्पना को स्वीकार करने में सहज नहीं हुआ क्यूंकि यह तो राष्ट्र को "माँ" मानने वाली सभ्यता थी, यँहा तो 'भारत माता की जय' का घोष चलता था। ऐंसे समुदाय को अचानक कहा जाय कि अब इस राष्ट्र में 'राष्ट्रपिता' पैदा हुये हैं तो असहजता होती ही। राष्ट्र को 'माँ' समझना भारत का साँस्कृतिक स्वभाव है जोकि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक/तार्किक आधार पर है क्यूँकि माँ ही वो है जो तुम्हें जनती है, धारण करती है अतः जिस धरा पर आपका जन्म हुआ वह 'माँ' स्वरुप ही होगी न कि पिता स्वरुप और यही सनातनी दृष्टि है। परिणाम यह हुआ कि विदेशी 'फादरलैंड' की अब्राहमिक संकल्पना वाले नवनिर्माण को आत्मसात करना कभी भी भारतीय मानस से नहीं हो पाया। यही कारण है कि वर्तमान में भारत में चलाई जाने वाली 'Patriarchy' वाली पाश्चात्य बहस भारत में सफल नहीं हो पाती जबकि इसे भारतीय मानस और विशेषकर नयी पीढ़ी के मन में स्थापित करने के लिए अपार धन सम्पदा लगाई जाती है।
साँस्कृतिक भारत और राजनैतिक भारत के बीच जो सेतु निर्माण का कार्य करती वह संकल्पना स्थापित ही नहीं की गयी बल्कि जिस प्रकार अंग्रेज सत्ता राज चला रही थी, उसे ही आगे घसीटा जाने लगा। मात्र अब श्वेत चेहरों के स्थान पर भारतीय रँग वाले चेहरे आ गये जिन्होंने पहनावा तो भारतीय रखा परन्तु आंतरिक स्वभाव वही अंग्रेजों वाला ही रहा। पहले अंग्रेज 'साहब' पीछे वाली सीट पर बैठते तो अब भारतीय साहब। 'साहबी' कभी गयी नहीं चाहे वह राजनीतिज्ञों की हो या नौकरशाही (Bureaucracy) की। 'कलेक्टर साहब' आज भी उन्हीं अंग्रेजों वाले Bungalow में सुशोभित हैं और उनका जनता के प्रति व्यवहार क्या है, वह सर्वविदित है। न राजनेता का जनता के साथ कोई अपनापन है न ही शेष स्टेट मशीनरी का। अपनापन शेष है तो मात्र सत्ता से, पैंसे से। जिसको जँहा अवसर मिलता है वंही लूट आरंभ। शिक्षा के नाम पर उन्हीं लुटेरों का महिमामंडन जिन्होंने इस राष्ट्र की सम्पदा को लूटकर अपनी 'औद्योगिक क्रांतियाँ' बनाई और दोष मढ़ा भारत की सामजिक स्थिति पर। 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' लिखी गयी जोकि पुनः पाश्चात्य संकल्पना आधारित, अब्राहमिक (चर्च) स्वभाव की।
जँहा तक मेरी व्यक्तिगत मान्यता/अध्ययन है इसका प्रमुख कारण है सनातन समाज को मिथ्या आधुनिकता के नाम दी जाने वाली शिक्षा जिसका राष्ट्र की जड़ों से कोई जुड़ाव ही नहीं। गुरुकुल (हिन्दू संस्थाओँ के लिये) के लिये 'इंडियन स्टेट' ने भिन्न नियम बनाये जिससे उन्हें चलाना अत्यंत कठिन हो गया जबकि दूसरी ओर मिशनरी द्वारा चालित संस्थानों या मदरसों को यही सत्ता/संबिधान विशेष सुबिधाएँ देती रही और यह आज भी अनवरत जारी है। 'मिशनरी' को बढ़ावा 'आधुनिकीकरण' के नाम पर जबकि 'मदरसों' को अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर। इसके परिणाम ये हुए कि विश्व को नए-२ दर्शन देने वाली भारतभूमि आज सब कुछ पाश्चात्य जगत से लेने लगी और अपने मार्ग को भी उन्हीं 'आकाओं' द्वारा लिखी पुस्तकों से समझने लगी। वर्तमान में भारतीय राजनीति के लिए शब्द प्रयोग ही देख लें तो समझ पाएंगे कि भारत में भी "राइट विंग", "लेफ्टविंग","लिबरल" जैसे ही शब्द प्रचलन में हैं जबकि इनका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं। भारत में जिसे 'लेफ्ट' कहा जाता है वह वास्तव में राइट (कट्टरपंथी) है और जो 'राइट' है वह लेफ्ट। आज यदि आप भारत में इतिहास के नाम पर जो पाठ्य पुस्तकें एन सी आर टी पढ़ा रही है उन्हें पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे कि यह स्वयम से घृणा भाव कँहा से उत्पन्न हो रहा है। ऐंसे में जब तक समाज स्वयँ उत्तरदायित्व नहीं लेगा कि अपने मूल में जाये, उसे समझे और अपनी नयी पीढ़ी को बताये तब तक यह 'इंडियन स्टेट' ऐंसे ही भटके हुये मानस के युवा उत्पन्न करती रहेगी और उन्हें कोई भी धनानंद अपने राजनैतिक लाभ के लिये प्रयोग करता रहेगा। आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) पैदा करना तो दूर वे थे कौन इसका आभास भी यदि आज की पीढ़ी को आप करा दें तो यह एक नव आरंभ होगा। शेष तो सनातन का बीज उनके अन्दर है ही वह स्वयँ अपना मार्ग ढूंढ लेगा। आवश्यकता है तो उन्हें छद्म इतिहासकारों के लिखे इतिहास का सत्य प्रामाणिक रूप से बताने की और इसके लिये आपको स्वयं अध्ययन करना होगा। हमें बताना होगा उन्हें भारत की इतिहास परंपरा के बारे में, भारत गाथा के बारे में जिससे उनमें विश्लेषण की दृष्टि उत्पन्न हो और वे मात्र एक भीड़ न बनें, भारत तेरे टुकड़े होंगे को बोलना फैशनेबल न समझें। उनके बीच छद्म आवरण ओढ़े कितने कालनेमि, रावण, शकुनि, कंस हैं वे तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक उन्हें यह इतिहास बताया न जाय। आप प्रयास करें अवश्य पुनः भारत कृष्ण अवतरित करेगा।
वंदे मातरम्।
विजय गौड़