Thursday, 24 November 2022

मेरा लिखना आजीविका नहीं मेरी!

मेरा लिखना आजीविका नहीं मेरी 
ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।
निरंतर लिखते रहना मरीचिका नहीं मेरी
ये शब्दों से बुना स्थायित्व मेरा।।

लिखता हूँ तो निर्भय 
निस्संकोच होता हूँ मैं 
लिखता हूँ तो एक अदृश्य शक्ति से 
ओत प्रोत होता हूँ मैं 
मेरा लिखना कोई उद्दण्डता नहीं मेरी 
ये माँ शारदे निहित अस्तित्व मेरा।
मेरा लिखना आजीविका नहीं मेरी 
ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।।

ये आक्रोश, ये असंतोष 
यूँ ही नहीं मेरे लिखने में 
पुरखों के रक्त सिंचित राष्ट्र प्रेम की सोच 
यूँ ही नहीं मेरे चीखने में 
मेरा लिखना सदियों की विभीषिका है मेरी 
और उससे जागृत हिन्दुत्व मेरा।
 मेरा लिखना आजीविका नहीं मेरी 
ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।।

मेरा लिखना मेरा ध्यान
मेरा लिखना धर्म का सम्मान 
मेरा लिखना मेरी सभ्यता का जयगान 
मेरा लिखना मेरी चेतना की उड़ान 
मेरा लिखना शब्द अट्टालिका नहीं मेरी 
ये उस ब्रह्म से है एकत्व मेरा।
 मेरा लिखना आजीविका नहीं मेरी 
ये स्वयं से चुना दायित्व मेरा।।

माँ सरस्वती एवं माँ भारती के श्री चरणों में समर्पित।

विजय गौड़ 
नवंबर २४, २०२२ 
मॉडेस्टो, कैलीफॉरनिया, अमेरिका। 

Friday, 18 November 2022

अज्यूँ बि कुच खास त छैं च न मैंमा!

त क्य ह्वै जु यखुलि ह्वै ग्यों मि 
त क्य ह्वै, जु अफि-अफि रै ग्यों मि। 
म्येरि य यकुलांस त छैं च न मैंमा,
अज्यूँ बि कुच खास त छैं च न मैंमा।।

१)
दूर ऐ ग्यों अपड़ा गौं, अपड़ा देस से मि 
उपिरि सि ह्वै ग्यों, अपड़ा इ भेस से मि। 
त क्य ह्वै, जु नकलि ह्वै ग्यों मि 
त क्य ह्वै, जु मौसम्या चखुलि ह्वै ग्यों मि 
म्येरि य चास-बास त छैं च न मैंमा 
अज्यूँ बि कुच खास त छैं च न मैंमा।।

२)
म्येरु मन कब छौ अपड़ि माटि छ्वड़णा कु
मिन सोचि इ कब छौं हे छुचों उन्द रड़णा कु 
त क्य ह्वै जु अफु से हि लड़ि ग्यों मि
त क्य ह्वै जु यनि खड़या-खड़ि छौं मि 
म्येरा जाड़ों से अपड़याँस त छैं च न मैंमा
अज्यूँ बि कुच खास त छैं च न मैंमा।।

३)
एक मन ब्वलद कि चल अब चलदा छौं 
त हैंकु ब्वाद अपड़ी-अपिड़ि स्वचणु छै 
त क्य ह्वै जु यनि असमंजस म रै ग्यों मि 
अर जु टुप्प द्वी घड़ि कु स्ये ग्यों मि 
सियाँ म बि ये मन, बग्वलि-इगास त छैं च न मैंमा 
अज्यूँ बि कुच खास त छैं च न मैंमा।। 

विजय गौड़ 
नवंवर १८, २०२२ 
सुबेर ९-१० बजि 
मॉडेस्टो, कैलीफॉरनिया, अमरीका 
 



Friday, 21 October 2022

समय क दगड़ मा!!

बगत सदनि इकसनि कब रै,
कालचक्र कि सीख तै, 
सिखण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।।  

तुमन कैदिन वूँ से लूछिकि 
अपणा भितर भोरिनि,
त आज बुलडोजर चलण बि
दयखण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।। 

समोदर मँथन मा अमरित इ ना
निकळद बिष बि 
कै न कै त वु बि 
घुटण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।। 

जै थैं देखा वे ई 
सोलि खाणै आतुरि 
लाटाओ पर य नरंगि 
च्वलण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।। 
 
हाँ छुचौं कबि कमाँदि होलि 
तुमरि फिलम ३०० करोड़ 
पर अब लोग साँटा ह्वै गेनि 
मनण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।। 

छत्ति मा टैटु न हि 
दाल नि गलणि रै चकड़ैतो 
"तु भलि लगदि मिथैं"
ब्वलण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।। 

खाण-कमाण कु माना 
चल ग्याँ बिरणा मुलुक 
पर अपड़ि गढ़वळि मा विज्जू
ल्यखंण त प्वाड़लि।
समय का दगड़ मा हिटण त प्वाड़लि।। 

रचना: विजय गौड़ 
स्थान: मॉडेस्टो, कैलीफॉरनिया 
फेसबुक पर प्रकाशित।
वर्ष: २०२२ 
 

Saturday, 3 July 2021

क़यामत से क़यामत तक

दोस्तों.. 

आज मेरे जेहन में बस आखिरियत का दिन है और मैं जानता हूँ कि आने वाली ज़िन्दगी में हम  सभी ने दीन के काम का सोच रखा है, लेकिन मैंने, मैंने अपने लिए उस से ज्यादा कुछ सोचा है और आज मुझे बार बार उसी का खयाल आ रहा है.. 


पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा 

बेटा दीनों-ईमानी काम करेगा 

मगर ये तो, कोई ना जाने 

कितना करेगा , कैंसे कहाँ.. 

पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा !!!!!!!

१)

लगे हैं मिल के, सब यार अपने 

सबके दिलों में, यही अरमान 

कोई बनाये 'pK' कभी तो

कोई 'रईस', कोई 'बजरंगी भाईजान' 

कोई तबलीगी का काम करेगा

कोई इंटेलेक्चुअल बनके 'तैमूर' जनेगा  

मगर ये तो, कोई न जाने अपनी तो मंज़िल, दारुल इस्लाम ... 

पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा !!!!!!!

२)

मेरा तो सपना, है अल तकैया 

'काफिर' की लड़की, और 'लव जिहाद'

मासूम बनके, बहकाना उसको 

फिर कुछ दिन में तलाक- तलाक 

बन्दा ये खूबसूरत काम करेगा 

दीनी दुनिया में अपना नाम करेगा

मेरी नज़र से देखो तो यारों 

जन्नत ही मंज़िल और कुछ कहाँ 

पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा !!!!!!!


@ Vijay Gaur

Wednesday, 30 December 2020

विनोद कुमार गौड़ : पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रारंभिक शिक्षा एवं जीवन:

उत्तराखण्ड, जम्बूद्वीप के भारतखण्ड की एक पौराणिक भूमि जँहा कंकण-कंकण में शंकर हैं, ऐँसा माना जाता है। वह स्थान जँहा आदि शंकराचार्य जब दिग्विजय यात्रा पर निकलते हैं और पुनः समाज के सम्मुख साँस्कृतिक भारत का मानचित्र रखते हैं और पुनर्स्थापना करते हैं भगवान् विष्णु के धाम बद्रीनाथ की। आदि योगी एवँ आदि शंकराचार्य द्वारा चुने ऐंसे ज्ञानमार्गी प्रदेश जो साथ ही ऋषि कण्व जैंसे न जाने कितने ऋषियों के ऋषित्व से धन्य है, में एक शिक्षक परिवार में उनका इस पीढ़ी का पहला बालक जन्म लेता है। दिन था २५ सितम्बर और वर्ष १९६१। माता श्रीमती देवी की आयु उस समय मात्र १८ वर्ष की थी पिता श्री सुरेशानंद गौड़ २१ वर्षीय। दादा श्री चंद्रमणि गौड़ जो कि अब अपनी वृद्धावस्था में थे, के लिये अपनी इस नयी पीढ़ी के आरम्भ का सुःख अवर्णनीय था। 

पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रारंभिक शिक्षा एवं जीवन: 

पारिवारिक वँशावली के अनुसार यह परिवार भारत के मालवा क्षेत्र से इस देवभूमि में आकर बसता है और ११ पीढ़ी पूर्व पट्टी बूँगी क्षेत्र (जँहा परिवार वर्तमान में भी रहता है) में रहना आरम्भ करता है। पूर्वज रथवा पाण्डे जी की बूँगी में ९ वीं पीढ़ी के इस बालक का नाम रखा जाता है 'विनोद'। माँ अपनी इस पहली संतान के जन्म का संस्मरण सुनाती हैं। कहती हैं की प्रसव पीड़ा होते-२ लम्बा समय हो गया और जब शिशु का जन्म नहीं हो पा रहा था तो गाँव की अनुभवी महिलाओँ ने उनके लिये घर से बाहर खुले आकाश के नीचे एक स्थान की निर्मिति की और माता को वँहा पर आने को कहा। कुछ ही समय पश्चात वहीँ पर खुले आकाश के नीचे 'बवाणी ग्राम' में वह अपने पहले शिशु को जन्म देती हैं। दादा चंद्रमणि जी जो कि अंग्रेजों द्वारा शासित भारत में पहले 'पटवारी' और तत्पश्चात 'अमीन' रहे थे, अब सेवानिवृत्ति के बाद गाँव में ही रहते थे। पिता सुरेशानंद जी अपने पिता के दूसरे विवाह से उत्पन्न संतान थे। दादा चंद्रमणि जी का व्यक्तिगत जीवन अत्यंत कठिनाइयों भरा था। उनकी प्रथम पत्नी से एकमात्र संतान एक पुत्री थीं। उसके बाद परिवार ने दूसरा विवाह सुझाया जिससे तीसरी संतान के रूप में सुरेशानंद जी का जन्म हुआ। उनके उपरान्त एक भाई और एक बहन का जन्म हुआ परन्तु भाई की ४ वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी। जब पिता सुरेशानंद जी की आयु मात्र ४ वर्ष की थी तो माँ उन्हें छोड़कर चली गयीं। बालक सुरेश और अनुजा देवकी को बड़ा करने का पूर्ण भार ८ वर्षीय अग्रजा गणेशी पर आ जाता है। इन्हीं कठिन परिस्तिथियों  के कारण पिता सुरेशानंद जी का विवाह मात्र १५ वर्ष की ही आयु (उस समय ७ वीं कक्षा के विध्यार्थी थे) में १२ वर्षीय श्रीमती से करवाना ही पिता को उचित लगा। १२ वर्ष की श्रीमती और अग्रजा गणेशी ने घर का सारा कार्यभार सँभाल लिया। इस से कल्पना की जा सकती है  कि वृद्ध दादा के लिये 'विनोद' का जन्म कितना सुखदायी रहा होगा। बालक का जन्म उन्हें अपने वँश के उज्ज्वल भविष्य के सपनों की ओर ले जा रहा था। अपने ध्येय उच्च शिक्षा को समर्पित पिता बालक के जन्म के समय अपनी उपस्तिथि भी सुनिश्चित नहीं कर पाये थे।

विनोद का जन्म एक अत्यंत ही दायित्वनिष्ठ माता की कोख से हुआ। ऐंसी महिला जो १२ वर्ष की अल्पायु में ही एक परिवार का दायित्व अपने कंधों पर ले लेती हैं। दायित्व निर्वाह और सही दिशा में आगे बढ़ने के बीज कदाचित यहीँ से बालक के व्यक्तित्व में पढ़ने आरम्भ हो चुके थे। कालान्तर में यही बालक मात्र अपने अनुजों और परिवार को ही नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण हेतु भी बड़ा दायित्व निर्वहन करता है। कठिन परिस्तिथियों में कैंसे बिना प्रभावित हुये निर्णय लेने हैं, इसकी शिक्षा अपनी माता-पिता प्रदत्त दिनचर्या से बालक को मिलना शैशव काल से ही आरंभ हो गयी। 

परिवार पर कठिनाइयाँ सदैव आती ही रहीं और बालक के जन्म के एक वर्ष उपरान्त दादा जी का स्वर्गवास हो गया। पिता ने अपना उच्च शिक्षा का अध्ययन प्रभावित नहीं होने दिया और उनकी रीढ़ बनी पत्नी श्रीमती जो उन्हें बालक की देखभाल और घर के कृषि के दायित्वों से अलिप्त रख रहीं थीं। एक ओर पिता सुरेश अपना परिश्रम शिक्षा के क्षेत्र में कर रहे थे तो दूसरी ओर माँ गाँव के अन्य परिवारों के साथ सामंजस्य स्थापित कर खेती एवं बालक को बड़ा करने का कार्य कर रही थीं। यह दोनों उदाहरण 'विनोद' के व्यक्तित्व में 'आर्गेनाईजेशन' और 'विज़न' की कोपलों का रोपण कर रहे थे। माता कृषिका और पिता शिक्षक। कुशाग्र बालक दोनों के महत्व को समझा और दोनोँ ही शिक्षाओं को आत्मसात करने लगा। 

पिता की नियुक्ति राजकीय इण्टर मीडिएट कॉलेज, बढ़खेत में 'लेक्चरर' के पद पर हो गयी और २६ वर्ष की आयु में ही उप-प्रधानाचार्य का कार्य भार भी मिल गया। बढ़खेत की दूरी बवाणी गाँव से लगभग ३० किलोमीटर से अधिक रही होगी। पिता सप्ताह के अंत में पैदल गाँव आते और आरंभ में बढ़खेत जाते। ४ वर्ष की आयु से 'विनोद' भी इस दिनचर्या का भाग बन गए। उनका जीवन अब ननिहाल (द्वारी गाँव) और बवाणी से बढ़खेत की यात्रा के साथ बीतने लगा। द्वारी से बढ़खेत की दूरी अधिक न होने के कारण पिता छोटे बालक को उसके ननिहाल छोड़ते और स्वयँ सप्ताह के अंत में अपने गाँव आते जाते रहते थे। तीन से चार सप्ताह में उनका भी पिता के साथ अपनी माँ से मिलने जाना होता। इसी दिनचर्या के साथ बालक की प्रारम्भिक शिक्षा संपन्न हुई। इस बीच परिवार में एक छोटी बहन का भी जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया 'पुष्पा'। बड़े भाई से ५ वर्ष उपरांत आई इस अनुजा से भाई को अत्यंत स्नेह था। 

पिता और पुत्र का जीवन एक नया मोड़ लेता है। जिस समय बढ़खेत एक उच्चतम माध्यमिक (इण्टर मीडिएट) विद्यालय के रूप में स्थापित था, हल्दूखाल (पैतृक गाँव का बाजार जँहा पर शिक्षण व्यवस्था और कुछ छोटी-२ दुकानें होती हैं) में केवल ८वीं तक की शिक्षा (मिडिल) उपलब्ध थी। बूंगी क्षेत्र में अब सभी बुद्धिजीवी जनों को एक अच्छे शिक्षा संस्थान की आवश्यकता दिखनी प्रारंभ हो चुकी थी परंतु इस कार्य हेतु एक कुशल नेतृत्व की भी आवश्यकता थी। क्षेत्र ने इस कार्य हेतु सबसे उपयुक्त व्यक्ति उच्च शिक्षित (मास्टर इन आर्ट्स (अर्थशास्त्र), मास्टर इन आर्ट्स (अंग्रेजी), बी टी (शिक्षण में स्नातक, बैचलर्स इन टीचिंग) सुरेशानंद जी में देखा। क्षेत्रीय जनमानस की ओर से लगातार हो रही माँग को गौड़ जी (क्षेत्र में प्रचलित नाम) ठुकरा न सके एवं अंततः १९६८ में अपनी उच्चतम माध्यमिक विद्यालय के सह-प्रधानाचार्य  की नौकरी जो आपको बेहतर एवं सफल भविष्य की ओर ले जा रही थी, का त्याग कर चुनौतियों से परिपूर्ण मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक का दायित्व लेने हल्दूखाल चले आये। लक्ष्य यही कि बूंगी पट्टी में एक उच्चकोटि का शिक्षण संस्थान स्थापित कर सकें। 

शीघ्र ही अपने अथक प्रयास और क्षेत्रीय जनमानस के सहयोग से गौड़ जी हल्दूखाल में १० वीं तक की शिक्षा आरम्भ करवा देते हैं। विनोद अपनी छठवीं से १० वीं की शिक्षा इसी विध्यालय से लेते हैं।  इस समयांतराल में परिवार में पुष्पा के बाद चार और भाई-बहनों का जन्म होता है जिनमें से उनके तुरंत बाद के एक भाई और एक बहन की मृत्यु हो जाती है परन्तु शेष दोनों ही भाई 'संजय' और 'अजय' परिवार में अपनी जीवन यात्रा आरम्भ कर देते हैं। ११वीं और १२ वीं की शिक्षा लेने विनोद पुनः बढ़खेत जाते हैं और क्षेत्र में अभी तक एक मेधावी क्षात्र के रूप में स्थापित हो चुके होते हैं। ऐंसा विध्यार्थी जिस पर न मात्र माता-पिता अपितु समस्त शिक्षक समाज और क्षेत्र को गौरव था और जिस से सभी को उच्च अपेक्षाएँ थीं। 

विनोद इन आकांक्षाओं पर खरे उतरते हैं और १२ वीं के पश्चात 'गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्व विध्यालय ' जैंसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान में कृषि में स्नातक करने हेतु प्रवेश पाने में सफल होते हैं। माता-पिता के लिये यह अत्यंत हर्ष का विषय था और इसी बीच परिवार में सबसे छोटे सदस्य का भी आगमन होता है, शिशु  का नाम रखा जाता है विजय। 

मेधावी विनोद: 

भारतीय परम्परा में कहा जाता है कि 'पूत के पाँव पालने से ही दिखने लगते हैं' और यह विनोद पर पूर्ण रूपेण सत्य बैठने वाली उक्ति है। बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि स्पष्ट दिखने लगी थीं। उनकी प्रारंभिक कक्षाओं की एक शिक्षिका का कहना है कि चौथी कक्षा में ही विनोद पाँचवीं कक्षा के विद्यार्थियों के समकक्ष ज्ञान रखते थे। इसका उन्हें विशेष उपहार भी मिला और उन्हें चौथी कक्षा में ६ माह के पश्चात ही पाँचवीं कक्षा में प्रोन्नत कर दिया गया। इस प्रकार उन्होंने एक ही वर्ष में दो कक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं। 

प्रेरक विनोद: 

स्नातकोत्तर विध्यालय हल्दूखाल के अपने संस्मरण सुनाते हुये विजय कुमार गौड़ जोकि विनोद जी के सबसे छोटे भाई हैं, बताते हैं कि विनोद विध्यालय के लिये एक मानक बन चुके थे, एक आदर्श थे प्रत्येक विध्यार्थी के लिये। सुबह-२ की प्रार्थना सभाओँ के पश्चात होने वाले प्रधानाचार्य एवं शिक्षकों के भाषणों में नियमित रूप से उनका उदाहरण हम सबको दिया जाता। हम अनुजों के लिये तो यह और भी कठिन परीक्षा होती क्यूँकि पिता विध्यालय में ही नहीं अपितु घर पर भी भाई जी का उदाहरण देते। इस स्थापित मानक पर स्वयँ को सिद्ध करना प्रत्येक विध्यार्थी के लिये प्रतिष्ठादाई होता। आज भी हल्दूखाल विध्यालय से निकलकर भारत सरकार के एक सँस्थान के शीर्ष पद पर पहुँचने का उनका उदाहरण पूरे क्षेत्र को प्रेरणा देता है। भविष्य में समस्त क्षेत्र पुनः उनसे मार्गदर्शन की आशा पाले हुऐ है कि वे पुनः अपने इतने लम्बे कृषि क्षेत्र के अनुभव को जनमानस से साझा करेँगे और उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र में कुछ ऐंसा करेँगे जिससे वँहा कृषि का आधुनिकीकरण हो और युवा आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में उनके मार्गदर्शन में आगे बढ़ सके। 

दूरदृष्टा विनोद: 

एकत्व और प्रेम का भाव उनके मुख्य गुण हैं। एक अन्य संस्मरण का उल्लेख करते हुये विजय कहते हैं कि पारिवारिक दायित्व में भाई जी ने अल्पायु में ही माँ - पिताजी का हाथ बँटाना आरंभ कर दिया। हालाँकि यह सँस्कार प्रत्येक भाई-बहन में माता -पिता द्वारा डाला गया परन्तु भाई उस परम्परा के प्रथम ध्वजवाहक बने। उन्होंने पिताजी के साथ बैठकर पहले ही हम सबके भावी जीवन, शिक्षण की व्यवस्था पर कार्य करना आरंभ कर दिया। आज हमारा परिवार क्षेत्र में एक बड़ा उदाहरण है जँहा 'शिक्षा सर्वोपरि' का भारतीय सभ्यता का मूल मन्त्र पूर्णरुपेण स्थापित है। आज हमारी बाद वाली पीढ़ी शिक्षा में बहुत अच्छा कर रही है और इसमें भाई की दूरदर्शिता  और सहभागिता का बड़ा योगदान है। 



 

 

Friday, 25 December 2020

कहो! यह युद्ध कैंसा है?

कहो! यह युद्ध कैंसा है?
जो स्वयँ से ही है अपरिचित,
अहो! यह बुद्ध कैंसा है?
कहो! यह युद्ध कैंसा है?

ऋषियों, मुनियों, मनीषियों के भारत में,
यह ज्ञान प्रवाह अवरुद्ध कैंसा है?
प्रश्नोत्तर में लीन परंपरा का भारत 
आज स्वयँ के ही विरुद्ध कैंसा है?
कहो! यह युद्ध कैंसा है?

जिस भूमि पर सभ्यता का हुआ आरंभ,
वँहा असभ्य आज प्रबुद्ध कैंसा है?
नीति, धर्म, सत्य के मूल्यों का भारत,
आज अधर्म, अनीति, असत से अशुद्ध कैंसा है?
कहो! यह युद्ध कैंसा है?

हे सनातन अब जाग तू,
शास्त्रार्थ से मत भाग तू,

रंच रूद्र के नव राग तू,
न स्वयँ का कर त्याग तू,
है समय ये कौटिल्य का,
कर शस्त्र से अनुराग तू,
न हो पहचान जिसे शत्रु की,
यह आर्यावर्त में आज चन्द्रगुप्त कैंसा है?

कहो यह युद्ध कैंसा है?
जो स्वयँ से ही है अपरिचित,
अहो! यह बुद्ध कैंसा है?
कहो! यह युद्ध कैंसा है?


विजय गौड़ 
दिसम्बर २५, २०२० 







गीत गाणा बणदा राला!

मन स्वचणु, हाथ ल्यखदा राला म्यारा जब तलक,
गीत गाणा बंणदा राला, सुणेणा राला तब तलक। 

सुख का गीत, दुःख का गीत,
यख का गीत अर वुख का गीत। 
आणा का गीत, जाणा का गीत,
बखाणा का गीत अर लठ्याणा का गीत। 
रीत प्रीत कि चलणी रालि जब तलक,
गीत गँगा ब्वगणिइ रालि तब तलक।।

लाड़ का गीत, दुलार का गीत, 
माया का गीत, मौल्यार क गीत। 
(अर सुलार क बि गीत, खड़ो मेरि प्यारि न ढैक किवाड़, बरखा न भीजि गैनि म्यारा सुलार )
ह्यूंद का गीत, बसग्याल का गीत,
ब्याळि, भोल, अजक्याल का गीत। 
ऋतु बसँत आली-जालि जब तलक,
गीत पुष्पा फुलणी राली, खिलणी रालि तब तलक।।

सँजोग का गीत, विजोग का गीत,
चौमास का गीत, यकुलांसा का गीत। 
खुद मा गीत अर खुद का गीत,
रुमकि का गीत अर सबेर का गीत। 
भै-बैणों कि खुद लगलि जब तलक,
जिकुड़ी झुरणी, अँगुली ल्यखणी रालि म्येरि तब तलक।।

सोच का गीत, विचार का गीत,
आचार का गीत, परचार का गीत। 
सन्देश का गीत, उपदेश का गीत,
देस का गीत, विदेस का गीत। 
नेता, मनख्यों (नेता खंण मिन मनखी नि बोलि हो)
नेता, मनख्यों बखाणों रालु जब तलक,
गालि खाणु, गाणु लिख्वाणु रालु मै से तब तलक,
गालि खाणु, गाणु लिख्वाणु रालु मै से तब तलक। 

विजय गौड़ 


गौं मि तिमलाखोलि नाल!

झम झमैलो ........ 
रै ग्योंऊँ सड़की जग्वाल,
गौं मि तिमलाखोलि नाल
झम झमैलो ........
कैन नि सूणि धाद म्येरि 
कैन बोटि नि मै अंग्वाल। 
झम झमैलो ....... 

दादू साल, सैंतालिस मा
देस अजाद ह्वै छौ मेरो,
कैन नि ल्येइ म्येरि सुद,
क्वी त म्येरा जना बि हेरो। 
झम झमैलो ....... 
रै ग्योंऊँ सड़की जग्वाल। 

दादू मिन ये, रौला बिटिन
गाड़यों कु गर्र गराट सूणी,
लब्सांदा नौना ज्वान देखिनि
दानों कु सक सक्याट जाणि।
झम झमैलो ....... 
रै ग्योंऊँ सड़की जग्वाल। 

दादू मि साख, साख्यों बिटिन 
बैठ्युं छौ सारा मा तुमारो,
खैंडादि क्वी म्यरा ढयों बि 
कुटलि द्वी कचाग मारो। 
झम झमैलो ....... 
रै ग्योंऊँ सड़की जग्वाल। 

दादू कु होलु वो भग्यान 
सुणलु म्येरि धै जु आज,
बिंगलु जिकुड़ी जु म्येरि
बणलु यीं खैरि कि अवाज। 
झम झमैलो ....... 
रै ग्योंऊँ सड़की जग्वाल। 
गौं मि तिमलाखोलि नाल। 
गौं मि तिमलाखोलि नाल। 
गौं मि तिमलाखोलि नाल। 

विजय गौड़ 
 

सोचि छई!!

सोचि छई, साथ त्येरु-म्येरू होलु, जीवन भर कु। 
सुपन्यु छई, त्येरा संग मा देख्युं, मिन नयु घर कु।।
सोचि छई ......... 

                       (१)
ब्यालि देखि मिन तू, 
म्येरा चौकै तिरालि। 
जन ब्वनी होलि तू,
मै धैरि दे समालि।
औंगाल तिन, 
हाँ हाँ औंगाल तिन,
झप्प मै पर बोटि बिन कै डर कु। 
सुपन्यु छई ....... 

                      (२)
सोचदि होलि तू 
य कनि माया मेरी,
हाँ बौल्या हुयूं मी, 
तेरु बाटू हेरि-हेरि।
रात-दिन , 
हो-हो रात दिन,
मन मा ख्याल तेरु रान्दु ये भौंर कु। 
सोचि छई ... .. ... 

                    (३)
आँखि द्यखदी रैगें, 
बाटू हेरिदी रैगें,
लाटा मन की वा तीस, 
तीस ह्वैकि रैगीं।
सुपन्यु मेरु 
हाँ हाँ सुपन्यु मेरु,
झणी किलै यु ह्वैगे आज कै हौर कु। 

सोची छई  ............ 
सुपन्यु छई .............. 

कॉपीराइट@विजय गौड़ 
मूल रचना: मई २००७, ग्वाटेमाला, सेंट्रल अमेरिका 
संशोधन: जनवरी ०४, २०२० 

कनि होलि वा

लड़का:
कख होलि वा, कनि होलि वा   -२ 
बालि सी या सयाणी होलि वा। 
माया लगौंलू जैंम मन कि बात बिंगौलु। 
कख होलि वा, कनि होलि वा।।

लड़की:
को होलु वो, कनु होलु वो  -२ 
अपडु या विरणु होलु वो। 
पिड़ा लगौंलु जैंम मन कि बात बथौंलू। 
को होलु वो, कनु होलु वो। 
कख होलि वा, कनि होलि वा।।

लड़का :
सचि मा कबि नि देखि नि जाणि, सचि मा जाणि नि देखि,
सुपिन्यों मा कबि झल दिखेंद, कबि लुके-लुकेकि।
होलि झणी कुज्याणि ज्वा स्वाँद मैसणि भगी। 
कख होलि वा, कनि होलि वा -२ 

लड़की:
हैरा जौ का झीस लठ्याला, हैरा जौ का झीस,
होलु कनु वु मीत मेरु आँख्यूं की जु तीस। 
झट दिख्ये जा, तर कै जा म्येरि मयलि जिकुड़ी। 
को होलु वो, कनु होलु वो  -२ 
अपडु या विरणु होलु वो। 


 


 

Thursday, 24 December 2020

श्री राम दर्शन!

हमें श्रीराम का दर्शन
कहो, किस विधि से हो जाये।
भला कैंसे दयानिधि में,
प्रभो हम सब समों जाँए।।

हमें भगवान् का दर्शन, कहो किस विधि से हो जाये।।

दया मुझ पर करो हनुमन! 
हे सीतराम के प्यारे,
कहो कैंसे मेरा जीवन भी,
प्रभु जपते हि कट जाये। 

हमें श्रीराम का दर्शन, कहो किस विधि से हो जाये।।

प्रभु जी अब तुम्हारे बिन,
नहीं लगता ये मन मेरा।
श्री चरणों में शरण भगवन,
कहो किस विधि से मिल जाए। 

भला कैसे दयानिधि में, प्रभो हम में समों जांये।।

माँ जानकी कृपा कर दो,
ह्रदय को प्रेम से भर दो। 
मिलन प्रभु से हमारा हो,
तुम्हीं ऐंसा जतन कर दो।।

हमें भगवान् का दर्शन, कहो किस विधि से हो जाये।।

कई पतितों को हे प्रभु जी,
किया है आपने पावन। 
हुआ हो पाप जो मुझसे,
उसे हरना हे मनभावन। 

हमें श्रीराम का दर्शन, कहो किस विधि से हो जाये।।

रचना: विजय गौड़ 
प्रेरणा: श्री पारेख जी द्वारा दी गयी गुजराती समाज के भजन से 


 

Saturday, 5 December 2020

विजय की बुद्धिजीविता शृंखला: शौर्य दिवस पर विशेष

सर्वप्रथम तो भारतीय सनातन सभ्यता से जुड़े और विश्व शान्ति के प्रत्येक प्रहरी को ६ दिसम्बर अपितु 'शौर्य दिवस' की शुभकामनायें। ऐंसा दिन जब एक आतताई द्वारा राष्ट्रनायक श्री रामचंद्र जी के जन्मस्थान पर बनाये गये ढाँचे का अस्तित्व कारसेवकों द्वारा समाप्त कर दिया गया और अब उस स्थान पर पुनः विश्व शाँति के, शौर्य के प्रतीक स्थल का पुनर्निर्माण आरम्भ हो चुका है। इस शुभ दिवस पर कुछ सामयिक विषयों पर जोकि भारतीय सभ्यता से जुड़े हैं, पर अपने विचार लिखना अति आवश्यक हैं और वे विषय इस प्रकार हैं। 

प्रथम विषय जिस पर लम्बे समय से लिखना चाह रहा था परन्तु उचित समय नहीं आ पाया। आज वह अवसर मुझे दिया नवाब पटौदी के पुत्र सैफ अली खान ने। अपनी आने वाली फिल्म 'आदिपुरुष' के सन्दर्भ में उन्होंने साक्षात्कार दिया है और उनका कहना है, 'We will make Ravan Humane, justify his abduction of Sita'. पहले मुझे लगा कि छोड़ो इन पर क्या टिप्पणी देनी है लेकिन पुनः सोचा कि इन फिल्मों का जनमानस पर वर्तमान में कितना प्रभाव  है, उसे आज के भारतीय समाज का मूल्याँकन कर समझा जा सकता है। अतः इस पर लिखना आवश्यक हो गया। सैफ अली खान स्वयं को जिस 'कुरानिक सभ्यता' से जोड़ते हैं (उनका नाम जिस अनुसार है) उसमें एक शब्द है 'अली' जोकि इनके नाम में भी है , क्या कभी यही सैफ उस अली की कहानी पर सच्ची फिल्म बना पायेंगे? 'अली' के बच्चों का कत्ल करने वाले के बारे में और उसकी प्रेरणा किस साहित्य से आती है, उस पर कुछ कह पायेंगे यदि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और रचनात्मक स्वतंत्रता की बात करते हैं तो ? क्या यही सैफ यदि कल इनकी पुत्री को कोई अगवा कर लेता है उस लुटेरे/आततायी का "humane" पक्ष रखने की बात करेंगे? सुशांत सिंह राजपूत और इनकी पुत्री के संबंधों और उसकी परिणति के बारे में इन्हीं के फिल्म उद्योग से किस प्रकार की सूचनाएँ आयी उससे जनसामान्य अनभिज्ञ नहीं है। क्या यही बॉलीवुड 'इस्लाम' पर अं'डरस्टैंडिंग मुहम्मद' जैंसी पुस्तक के अनुसार कोई फिल्म 'रचनात्मक स्वंतंत्रता' के नाम पर बना सकता है? क्या यही बॉलीवुड/सैफ 'Satanic Verses' लिखने वाले सलमान रुश्दी की पुस्तक पर बैन लगने और फतवा जारी किये जाने पर कुछ कह रहा था? क्या चार्ली हेब्डो के स्टॉफ की हत्याओं के समय या अभी वर्तमान में एक शिक्षक की इन्हीं सैफ के मजहब वालों द्वारा पेरिस में हत्या करने पर इन्होंने कुछ मानवता की बात की या इनकी टिप्पणी मात्र हिन्दू समाज तक ही सीमित है? 

स्मरण हो कि इसी बॉलीवुड से बहुत से छद्म हिन्दू कठुआ की घटना के समय प्लेकार्ड लेकर अपने हिन्दू होने पर दुःख प्रकट कर रहे थे पर क्या यही सैफ या इनकी 'तथाकथित हिन्दू' बेगम पेरिस में शिक्षक की हत्या किये जाने पर 'इस्लाम' को उत्तरदायी ठहरा रहे थे जबकि यह कृत्य मात्र इस्लाम के प्रोफेट के लिए कुछ कहे जाने के कारण हुआ था। इन सब प्रश्नों का उत्तर है "नहीं" क्यूंकि उस समय ये सब 'एथीस्ट' वाला चोला ओढ़ लेंगे। 

यही बॉलीवुड भारतीय समाज को  पितृसत्तावादी (patriarchal) बताकर उसे समाप्त करने की पहल की बात करता है (सुशांत सिँह की तथाकथित महिला मित्र की पोशाक पर लिखा कोट आपने देखा ही होगा या फिर ट्विटर के सीईओ की भारत यात्रा के समय का नैरेटिव) परन्तु मैं इनका दोहरा चरित्र इन्हीं 'सैफ अली' के उदाहरण से समझाता हूँ। कहते हैं ना कि 'Charity begins at Home'. इनके पिता का नाम था मंसूर अली खान। विवाह हुआ प्रेम के नाम पर एक हिन्दू से जोकि स्वयं इसी फिल्म उद्योग से थी और शर्मिला टैगोर हो गयीं 'आयशा बेग़म'. पुत्र हुआ 'सैफ अली खान' पुत्री 'सोहा अली खान' . प्रेम विवाह था तो शर्मिला को आयशा होने की आवश्यकता क्यूँ हुयी? क्या किसी भी बच्चे का नाम शर्मिला 'रवीन्द्र' या 'लक्ष्मी' रख पाईं यदि यह पितृसत्तात्मक परिवार नहीं था तो? भारत में क्रिकेटर और फ़िल्मी नायक/नायिकाएँ तो तथाकथित खुले विचारों वाले होते हैं ना? शर्मिला को अपनी विवाह पूर्व की पहचान भी छोड़नी पड़ी और अपने बच्चों के नाम रखने का अधिकार भी नहीं मिला और 'my rights' की बात सर्वाधिक यही 'आधुनिक' करते हैं। अब इनकी अगली पीढ़ी में चलते हैं। स्वयँ 'सैफ' पहला विवाह करते हैं 'अमृता सिंह' से। बच्चों के नाम 'इब्राहीम अली खान' और सारा अली खान। अब तो दूसरी पीढ़ी में भी किसी अन्य समुदाय से विवाह हुआ था तो एक बच्चे का नाम 'शविंदर' या 'रविंदर' ही रख लेते पितृ सत्ता के विरुद्ध (सेक्युलर मूल्यों के अनुसार)? और आगे देखेँ। 'सैफ' मियाँ अब अमृता को छोड़ देते हैं और पुनः चलते हैं आगे की खेती करने। विवाह होता है 'करीना कपूर' से और अबकी बार बच्चे का नाम 'तैमूर अली खान' . उनकी क्रांतिकारी पत्नी पुत्र का नाम 'पृथ्वीराज कपूर' या थोड़ा मातृ सत्ता थोड़ा सेक्युलर होते हुये पृथ्वीराज अली खान ही रखवा देतीं ? स्मरण हो कि इसी बॉलीवुड में नीलिमा अजीम अपने हिन्दू पति पंकज कपूर से उत्पन्न बच्चे का नाम 'शाहिद' रखवा लेती हैं वह शाहिद भी है और कपूर भी क्यूंकि पिता पंकज है। 

दूसरा विषय जिस पर कुछ पंक्तियाँ लिखना आवश्यक है वह है किसान रैली में आये योगराज सिंह पर। यह भी विषय सनातन सभ्यता का अतः उत्तर आवश्यक। बिल पर बात होती तो वो उनके और सत्ता के बीच का विषय था। 

उनका कथन है कि, 'ये वो कौम है जिन्होंने हज़ारों साल गुलामी की, इनकी औरतें टके-टके के भाव बिकती थीं' तो सुनों आर्थर मक्लिफ्फ़ के शिष्यो! हम तो हैं १० गुरुओं और गुरु ग्रन्थ साहब को मान ने वाले और तुम बोल रहे हो अपने गुरु मक्लिफ्फ़ की भाषा। हमारे गुरुओं ने तो शीश दे दिये सनातन के लिए और तुम्हारे वाले ने तुम्हारी मति ऐंसी पलटी कि तुम अब स्वयं से ही घृणा करने लगे हो। हम वो हैं जो हज़ारों साल के बाद भी अपना मूल नहीं भूले और आज भी युद्ध कर रहे हैं धर्म (not religion) के लिये। रही बात 'औरत' की तो तुम स्वयँ अपने अंतर्मन में झाँको और अपनी पत्नी के साथ क्या किया, स्वयं से पूछो? सारा भारत जानता है टी बी माध्यमों से तुम्हारी पत्नी ने क्या कहा तुम्हारे बारे में। सनातन सभ्यता में स्त्री को 'औरत' नहीं कहते और न ही माल ए गनीमत इसलिये नारी को वस्तु समझने वाली सोच जिस गुरु ने तुममें डाली, तुम उसी की वाणी बोलोगे। तुम्हें अंतिम सुझाव और वह ये कि शीघ्र नाम बदल लो, 'योगराज' शोभा नहीं देता तुम्हें। योग जिस सनातन परंपरा का शब्द है वह 'एकात्म' की बात करती है और 'योग' का मूल है 'प्रकृति के साथ समन्वय' परन्तु तुम्हारी बुद्धि में इस प्रकृति स्वरूपा 'नारी' के लिये जो है वह भारतीय नहीं। 

आलेख पढ़ने वाले सभी लोगों से यही विनती कि तथ्यों के आधार पर ऐंसे लोगों को उत्तर अवश्य दें, मैं वही प्रयास कर रहा हूँ। 

भारत माता की जय, वन्दे मातरम्, जय श्रीराम!!

विजय गौड़ 

दिसम्बर ०६, २०२० 



Saturday, 3 October 2020

विजय की बुद्धिजीविता आलेख श्रृंखला: भारतीय राजनीति निरँतर धनानंद उत्पन्न करती रही परन्तु समाज आचार्य विष्णुगुप्त नहीं दे पाया, इसके कारण क्या हैं?

भारतवर्ष को 'तथाकथित स्वतंत्रता' मिले ७० से अधिक वर्ष हो चुके हैं परन्तु यह शताब्दियों पुरानी सभ्यता वाला राष्ट्र आज भी मानसिक रूप से स्वतंत्र हो पाया है, इस पर यदि चिंतन करें तो अत्यधिक विरोधाभास पायेंगे। स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि १९४७ में खण्डित किये जाने के बाद सत्ता हस्ताँतरण (transfer of power) के माध्यम से उत्पन्न  तथाकथित 'मॉडर्न इंडिया' आज भी 'भारत' से स्वयँ को नहीं जोड़ पाया है। क्या यह 'संबिधान' के नाम पर जो एक पुस्तक जिसका मूल स्वभाव ही अब्राहमिक है (सनातन सभ्यता में यह एक 'किताब' की संकल्पना है ही नहीं, इसकी प्रवृत्ति तो निरंतर प्रवाह वाली नदी सी है कि जैंसे ही प्रवाह में व्यवधान आने से दुर्गन्ध उत्पन्न होना आरम्भ हुयी, यह अपनी नयी दिशा ले ले परन्तु मूल को सदैव जीवित रखते हुये), को जनसामान्य से सम्पूर्ण चर्चा के बाद इसका स्वरुप दिया गया या बहुत से अन्य देशों के संबिधानों को मिलाकर कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा सा इसे इस राष्ट्र पर थोप दिया गया? प्रतीत तो ऐंसा ही होता है क्यूँकि जनमानस में यह डाला जाने लग गया कि आपके एक 'राष्ट्रपिता' हैं और उसके उपरान्त एक 'राष्ट्रचाचा' भी। ध्यान रहे कि सनातन समाज १००० वर्ष की परतंत्रता के बाद भले ही कुछ शक्ति अभाव में पहुँच चुका हो, उसका अनाज चाहे द्वितीय विश्व युद्ध लड़ने के लिए भेजकर 'अकाल' उत्पन्न कर दिया गया हो, परन्तु उसके बाद भी वह इस संकल्पना को स्वीकार करने में सहज नहीं हुआ क्यूंकि यह तो राष्ट्र को "माँ" मानने वाली सभ्यता थी, यँहा तो 'भारत माता की जय' का घोष चलता था। ऐंसे समुदाय को अचानक कहा जाय कि अब इस राष्ट्र में 'राष्ट्रपिता' पैदा हुये हैं तो असहजता होती ही। राष्ट्र को 'माँ' समझना भारत का साँस्कृतिक स्वभाव है जोकि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक/तार्किक आधार पर है क्यूँकि माँ ही वो है जो तुम्हें जनती है, धारण करती है अतः जिस धरा पर आपका जन्म हुआ वह 'माँ' स्वरुप ही होगी न कि पिता स्वरुप और यही सनातनी दृष्टि है। परिणाम यह हुआ कि विदेशी 'फादरलैंड' की अब्राहमिक संकल्पना वाले नवनिर्माण को आत्मसात करना कभी भी भारतीय मानस से  नहीं हो पाया। यही कारण है कि वर्तमान में भारत में चलाई जाने वाली  'Patriarchy' वाली पाश्चात्य बहस भारत में सफल नहीं हो पाती जबकि इसे भारतीय मानस और विशेषकर नयी पीढ़ी के मन में स्थापित करने के लिए अपार धन सम्पदा लगाई जाती है। 

साँस्कृतिक भारत और राजनैतिक भारत के बीच जो सेतु निर्माण का कार्य करती वह संकल्पना स्थापित ही नहीं की गयी बल्कि जिस प्रकार अंग्रेज सत्ता राज चला रही थी, उसे ही आगे घसीटा जाने लगा। मात्र अब श्वेत चेहरों के स्थान पर भारतीय रँग वाले चेहरे आ गये जिन्होंने पहनावा तो भारतीय रखा परन्तु आंतरिक स्वभाव वही अंग्रेजों वाला ही रहा। पहले अंग्रेज 'साहब' पीछे वाली सीट पर बैठते तो अब भारतीय साहब। 'साहबी' कभी गयी नहीं चाहे वह राजनीतिज्ञों की हो या नौकरशाही (Bureaucracy) की। 'कलेक्टर साहब' आज भी उन्हीं अंग्रेजों वाले Bungalow में सुशोभित हैं और उनका जनता के प्रति व्यवहार क्या है, वह सर्वविदित है। न राजनेता का जनता के साथ कोई अपनापन है न ही शेष स्टेट मशीनरी का। अपनापन शेष है तो मात्र सत्ता से, पैंसे से। जिसको जँहा अवसर मिलता है वंही लूट आरंभ। शिक्षा के नाम पर उन्हीं लुटेरों का महिमामंडन जिन्होंने इस राष्ट्र की सम्पदा को लूटकर अपनी 'औद्योगिक क्रांतियाँ' बनाई और दोष मढ़ा भारत की सामजिक स्थिति पर। 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' लिखी गयी जोकि पुनः पाश्चात्य संकल्पना आधारित, अब्राहमिक (चर्च) स्वभाव की। 

जँहा तक मेरी व्यक्तिगत मान्यता/अध्ययन है इसका प्रमुख कारण है सनातन समाज को मिथ्या आधुनिकता के नाम दी जाने वाली शिक्षा जिसका राष्ट्र की जड़ों से कोई जुड़ाव ही नहीं। गुरुकुल (हिन्दू संस्थाओँ के लिये) के लिये 'इंडियन स्टेट' ने भिन्न नियम बनाये जिससे उन्हें चलाना अत्यंत कठिन हो गया जबकि दूसरी ओर मिशनरी द्वारा चालित संस्थानों या मदरसों को यही सत्ता/संबिधान विशेष सुबिधाएँ देती रही और यह आज भी अनवरत जारी है। 'मिशनरी' को बढ़ावा 'आधुनिकीकरण' के नाम पर जबकि 'मदरसों' को अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर। इसके परिणाम ये हुए कि विश्व को नए-२ दर्शन देने वाली भारतभूमि आज सब कुछ पाश्चात्य जगत से लेने लगी और अपने मार्ग को भी उन्हीं 'आकाओं' द्वारा लिखी पुस्तकों से समझने लगी। वर्तमान में भारतीय राजनीति के लिए शब्द प्रयोग ही देख लें तो समझ पाएंगे कि भारत में भी "राइट विंग", "लेफ्टविंग","लिबरल" जैसे ही शब्द प्रचलन में हैं जबकि इनका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं। भारत में जिसे 'लेफ्ट' कहा जाता है वह वास्तव में राइट (कट्टरपंथी) है और जो 'राइट' है वह लेफ्ट। आज यदि आप भारत में इतिहास के नाम पर जो पाठ्य पुस्तकें एन सी आर टी पढ़ा रही है उन्हें पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे कि यह स्वयम से घृणा भाव कँहा से उत्पन्न हो रहा है। ऐंसे में जब तक समाज स्वयँ उत्तरदायित्व नहीं लेगा कि अपने मूल में जाये, उसे समझे और अपनी नयी पीढ़ी को बताये तब तक यह 'इंडियन स्टेट' ऐंसे ही भटके हुये मानस के युवा उत्पन्न करती रहेगी और उन्हें कोई भी धनानंद अपने राजनैतिक लाभ के लिये प्रयोग करता रहेगा। आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) पैदा करना तो दूर वे थे कौन इसका आभास भी यदि आज की पीढ़ी को आप करा दें तो यह एक नव आरंभ होगा। शेष तो सनातन का बीज उनके अन्दर है ही वह स्वयँ अपना मार्ग ढूंढ लेगा। आवश्यकता है तो उन्हें छद्म इतिहासकारों के लिखे इतिहास का सत्य प्रामाणिक रूप से बताने की और इसके लिये आपको स्वयं अध्ययन करना होगा। हमें बताना होगा उन्हें भारत की इतिहास परंपरा के बारे में, भारत गाथा के बारे में जिससे उनमें विश्लेषण की दृष्टि उत्पन्न हो और वे मात्र एक भीड़ न बनें, भारत तेरे टुकड़े होंगे को बोलना फैशनेबल न समझें। उनके बीच छद्म आवरण ओढ़े कितने कालनेमि, रावण, शकुनि, कंस हैं वे तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक उन्हें यह इतिहास बताया न जाय। आप प्रयास करें अवश्य पुनः भारत कृष्ण अवतरित करेगा। 

यदा-२ हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम। 
परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम,
धर्म सँस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।

वंदे मातरम्। 

विजय गौड़ 

 

Wednesday, 2 September 2020

संकल्प ४

पुरुष: मुखड़ा 

मि त्वैमा छौंऊँ, तु मैमु छैई, (२)
मि त्वैमा रौंऊँ, तु मैमा रैई। 
हाँ! बैंठि रै तु, हाँ सजीं रै तु, मेरा मन मा,
मेरि ह्वै जै तु ये जीवन मा।। (२)

महिला: मुखड़ा
 
मि तेरि छौंऊँ, तु मेरो छैई, (२)
मि तेरि लगौंऊँ, तु मेरि लगैई। 
हाँ! रलि जै तु, ओ ढलि जै तु, मेरा ढँग मा,
मेरु जीवन तेरा संग मा ।। (२)

  (१) पुरुष: अंतरा 

जनि सोचि, छै तनि छै तू, (२)
कबि बालि सि कबि ज्वनि छै तू। 
ओ ! कबि बालि सि कबि ज्वनि छै तू। 
हाँ! भिगीं रै तू, ये रँगी रै तू, मेरा रँग माँ 
मेरि ह्वै जै तु ये जीवन मा।। (२)

    (२)  पुरुष: अंतरा 

हाँ! चुप रैकि, क्य कनि छै तू? (२)
मुखि-मुख मा क्य ब्वनि छै तू , 
ओ गिची-गिचि क्य ब्वनि छै तू? 
हाँ बोलि दे तू, ये खोलि दे जु, तेरा मन मा ,
मेरि ह्वै जै तु ये जीवन मा।। 
(२)

    (३) महिला: अंतरा 

मेरु बि सुपन्यु, सुपन्यु तू ई, (२)
एकि अपड़ु, अपड़ु तू ई,
ईं जिकुड़ि मा तुई, तू ई
हाँ! तेरी आस, तेरि हि सॉंस अंगि-अंग मा,
मेरु जीवन तेरा संग मा ।। (२)


विजय गौड़ 
सितम्बर ०२, २०२० 

 

Saturday, 29 August 2020

विजय की बुद्धिजीविता: आलेख ६

भारतीय दृष्टि, भाषा एवम दर्शन के ज्ञान के अभाव में उत्तराखण्ड की नयी पीढ़ी श्री नरेंद्र सिंह नेगी का काव्य आत्मसात करना तो दूर, क्या उसे समझ भी पायेगी? एक विश्लेषण 

मेरा जन्म हुआ भारत के उत्तर में स्तिथ उस राज्य में जँहा से भारतीय सनातन सभ्यता की जननियों में से प्रमुख 'माँ गँगा' का उद्गम होता है, दसवीँ कक्षा तक की शिक्षा वहीँ हुयी और उसके बाद जैंसा कि ग्रामीण भारत के प्रत्येक बच्चे का भविष्य होता है, मैं भी घर छोड़ कर निकल पड़ा आने वाले समय के दायित्वों के निर्वहन के लिये आवश्यक शिक्षण हेतु। जन्म से १५ वर्ष की आयु तक मेरे अंदर माता-पिता, परिवार, समाज और एक अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति जिसे उत्तराखंड में 'लोककवि' की स्नेहपूर्ण उपाधि मिली हुई है, नाम श्री नरेंद्र सिंह नेगी, द्वारा नैतिकता के बीज बोये जा चुके थे। श्री नेगी, वह विभूति जो भारतीय परंपरा, पहाड़ की परंपरा को जीती है, लिखती है। मेरे समय के प्रत्येक बच्चे के लिए 'नेगी जी' के गीत ऐंसे होते थे जैसे कि हमारे लिये ही लिखे गये हों। ऐंसे गीत, ऐंसा काव्य जिसका एक-२ शब्द भारतीय होता था, पहाड़ी होता था और काव्य के एक-२ शब्द में पहाड़ की, भारतीय सभ्यता की एक कहानी होती थी। गीत सुनकर यही लगता कि हम ही इसके मुख्य पात्र हैं। 

आज जब मैं शारीरिक रूप से अपने देश में न होकर उस देश 'अमेरिका' में हूँ जिसकी तथाकथित 'आधुनिक' सभ्यता को आज मेरे देश के युवा ने अपना लिया है (या ये कहें कि हमने एक भेड़चाल का अंग बनते हुये उन्हें इसमें डाल दिया है) तो सोचता हूँ कि क्या मेरी नई पीढ़ी 'नेगी जी' को समझ पायेगी। उन सन्दर्भों को समझ पायेगी जिनको 'नेगी काव्य' ने शब्द देकर सँकलित किया है? विचार आता है कि मैं हूँ तो उन्हें बताने के लिये और यह कुछ स्तर तक सत्य भी है परन्तु उसी समय भाषा के, विचार के, दर्शन के, दृष्टि के ज्ञान के अभाव को एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में पाता हूँ। यह स्तिथि मात्र उन भारतीयों की नहीं है जो भारत से बाहर हैं अपितु उनकी भी है जो भारत के आज के समाज में भी पल-बढ़ रहे हैं। आज का बच्चा भारतीय सभ्यता के, विचार के श्रेष्ठ उदाहरणों के नामों तक का तो सही से उच्चारण नहीं कर पाता। 'राम' रामा हो चुके हैं। कृष्ण, कृष्ना हो चुके हैं। गणेश, गनेशा बन चुके हैं। शेष नामों को तो भूल ही जाँय कि वे बोल भी पाएँगे। 'दधीचि', शत्रुघ्न, वशिष्ठ जैंसे नामों के सही उच्चारण की कामना तो बहुत ही दूर की बात हो चुकी है। 'ण' अब 'न' हो चुका है. 'ड़' या तो ड हो चुका है या 'र'। इसकी वानगी इसी में देखें कि मेरा बेटा अपने पारिवारिक नाम 'गौड़' के स्थान पर 'गौर' उच्चारित करता है और वह समय दूर नहीं जब 'गौड़', गौर ही बन जायेगा। अब इन बच्चों से क्या आप यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे 'नेगी जी' ने जो लिखा है, उसे समझ पायेंगे? उस लेखन को समझ पाएँगे जोकि बहुआयामी है? तर्क/दर्शन को मात्र 'true-false' में समझने वाला मानस भारतीय दर्शन की चतुष्कोटि को समझ पायेगा। क्या वह उस भारतीय परंपरा की वैतरणी की निरंतरता को बनाकर रख पायेगा जिसे 'नेगी जी' अपने साहित्य में बना पाये हैं। उदाहरणार्थ, सदियों पूर्व रंचे हितोपदेश 'उद्यमेन हि सिद्धन्ति, कार्याणि न मनोरथै:' को नेगी जी 'मन का मन्युला बैठ-बैठी नि पुर्योंदा' लिखकर पुनः भारतीय मानस में डालते हैं। 

कुछ ही वर्ष पूर्व मैंने अपने जीवन के २-३ माह वेस्टइंडीज (Caribbean) के एक देश गयाना में एक व्यावसायिक कार्य के हेतु बिताये। ज्ञात हो कि यह देश एक समय में अंग्रेजों के अधीन था और वे भारत से बहुत से परिवारों को वँहा श्रमिक के रूप में ले गये और आज गयाना की बड़ी जनसँख्या हिन्दू है। मैंने बहुत पास से वँहा के बच्चों को देखा है जो हिंदी के नाम पर मात्र 'बॉलीवुड' के गानों को सुनते हैं, बहुत से गीतों को उन्होंने कुछ अलग ही रूप दे दिया है। स्तिथि यह है कि गीत के बोल यध्यपि दुःख के हैं परंतु उन्होंने उसके संगीत को 'डांस नंबर' में बदल दिया है और वे हर्ष के साथ उस पर नृत्य करते हैं जबकि वास्तविक गीत दुःख से, करुणा से भरा हुआ है। क्या यह भारत का भविष्य है? 'गढ़वाली' भाषा ज्ञान की स्तिथि देखें तो वह यँहा पहुँच भी चुकी है। क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों  कि स्तिथि वैंसी ही होगी जो हमारी स्तिथि आज 'सँस्कृत' भाषा के ज्ञान को लेकर हो गयी है? क्या समाज में ऐंसी ही 'छवि' (perception) शेष भारतीय भाषाओँ की भी बन जायेगी, जो आज 'सँस्कृत' की है? (विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा 'सँस्कृत' आज के भारतीय समाज में मात्र पूजा-पाठ की भाषा के रूप में जानी जाती है)।

इतनी समृद्ध भाषाओं का, सभ्यता का यदि ऐंसा अंत होता है तो यह मानव सभ्यता का अपने अंत की ओर जाना होगा। भारतीय ऋषियों ने अपने स्थूल शरीर को एक प्रयोगशाला बनाकर अध्यात्म के जिन आयामों को समझा, उससे उनकी ही आज की पीढ़ी सर्वाधिक अनभिज्ञ है। स्तिथि यह है कि वे ऋषि भी आज 'माइथोलॉजी' का भाग बन गए हैं। अतः आज समाज का यह मुख्य दायित्व है कि वह अपनी नयी पीढ़ी को भारतीय भाषाएँ, दर्शन, दृष्टि सिखाएँ तभी नया समाज सच्चे अर्थों में 'आधुनिक' हो पायेगा न कि छद्म बॉलिवुडी आधुनिक। ऐंसा समाज जो 'सत्यमेव जयते' मात्र अर्थ की कामना (पैंसे बनाने के लिये या PR Exercise के लिए) के लिये न कहे अपितु उसका मूल आत्मसात कर अपनी दिनचर्या में पालन करे अन्यथा समाज 'बादशाह' 'हनी सिंह' तो प्रतिदिन पैदा करेगा परन्तु 'नरेंद्र सिंह नेगी' नहीं। 

 नेगी जी की एक रचना:

अषाड़ कुयेड़ी लौंकण से पैलि,
सौंण बरखा पाणी बरखंण से पैलि,
भादो का भदोड़ा बाण से पैलि,
ऐ जई  ........   
फेर दिन नि छन,
बामण बुनु च फेर दिन नि छन,
देख्यालि पतड़ु, फेर दिन नि छन।।

यह मात्र आरंभ है इस रचना का जोकि नेगी जी की टी-सीरीज से निकली कैसेट 'तुम्हरि माया मा' (तुम्हारे प्रेम में) से ली है मैंने। यदि आप भारतीय लेखन विधा को समझते हैं तो पायेंगे कि यह मात्र गीत की कुछ पँक्तियाँ नहीं हैं अपितु इससे आप ऋतु ज्ञान, जीवन शैली, भारतीय परिवार व्यवस्था में पति-पत्नी की एक दूसरे के लिये पूरकता, समाज व्यवस्था आदि अनेकों बातें समझ सकते हैं। इसी गीत को यदि आप पाश्चात्य व्यवस्था से देखेंगे तो अर्थ का अनर्थ कर बैठेंगे। रचना पहाड़ के किसी गाँव में जीवन व्यतीत करने वाले एक युगल के जीवन पर लिखी गयी है। भारतीय साहित्य को बिना देश, काल, परिस्तिथि के सापेक्ष रखे नहीं समझा जा सकता, यह भारतीय दृष्टि का मूल है। पत्नी अपने पैतृक गाँव गई हुई हैं और इस समय पति अकेले हैं। पति अपनी पत्नी के घर लौटने की प्रतीक्षा में हैं और पत्नी आ नहीं रही हैं। गीत लिखा गया है जब ग्रीष्म ऋतु  अपने अंत की ओर है, उस समय में। पति कहते हैं  : -

गढ़वाली: अषाड़ कुयेड़ी लौंकण से पैलि, 
हिंदी: आषाढ़ (वर्षा ऋतु में पहाड़ों में कुहरा फैल जाता है) माह के कुहरे के लगने से पहले,
गढ़वाली: सौंण बरखा पाणी बरखंण से पैलि,
हिंदी: सावन की वर्षा का पानी बरसने से पहले,
गढ़वाली: भादो का भदोड़ा बाण से पैलि
हिंदी: भादों माह में बोई जाने वाली फसल के लिये लगने वाले हल से पहले,
गढ़वाली: ऐ जई  ....... 
हिंदी: आ जाओ 
गढ़वाली: फेर दिन नि छन
हिंदी: उसके उपरान्त कोई अच्छे दिन (शुभ मुहूर्त) नहीं हैं।
गढ़वाली: बामण बुनु च फेर दिन नि छन,
हिंदी: ब्राह्मण का कहना है कि उसके उपरान्त दिन, मुहूर्त नहीं हैं। 
गढ़वाली: देख्यालि पतड़ु, फेर दिन नि छन। 
हिंदी: उन्होंने अपनी पत्रावली (पुस्तक जो भारतीय ज्ञान परंपरा में ग्रहों की स्तिथि, जलवायु, दिशा आदि के विस्तृत अध्ययन के उपरांत बनाई जाती थी) देख ली है और उनका सुझाव है कि उसके उपरान्त शुभ मुहूर्त नहीं है। 

इसमें आप भारतीय सभ्यता के गीत के माध्यम से किये जाने वाले अप्रतिम कहानी लेखन (Story telling) को स्पष्ट देख सकते हैं। यह रचना पहाड़ की जीवन शैली से भी आपका परिचय करवाती है। आषाढ़, सावन, भादों वर्षा ऋतु के माह हैं यह भी बताती है। भारतीय साहित्य की व्याख्या करने के लिए भारतीय दृष्टि के मापदंडों (देश, काल, परिस्तिथि) के बिना आप कभी भी कवि के मानस तक नहीं पहुँच पाएंगे। इसी अज्ञान का फल हम एक अज्ञानी समझ के रूप में देवदत्त पटनायक, शेल्डन पोलॉक, वेंडी डोनिगर जैसे तथाकथित 'इंडोलॉजिस्ट' की भारतीय ग्रंथों (रामायण, महाभारत) की व्याख्या में पाते हैं। मूल भाषा का ज्ञान न होने के कारण, भारतीय दृष्टि की अज्ञानता के कारण हमारा युवा इन महानुभाओं द्वारा अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों को सत्य समझ बैठता है और इसकी परिणति हींन भावना (Inferiority Complex) , अपनी पहचान को हेय दृष्टि से देखना (Identity Crisis), अपनी भाषाओँ को सीखने हेतु इच्छाशक्ति का अभाव (lack of determination to learn Indian languages) के रूप में होती है। नेगी जी द्वारा रचित इन्हीं कुछ पँक्तियों को आने वाले सैकड़ों वर्षों उपरान्त उस समय की पीढ़ी एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में भी प्रयोग कर सकती है कि कौन से महीनों में उस समय भारत में वर्षा ऋतु होती थी। समय के साथ ऋतु चक्र में प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। ज्ञात रहे कि महाभारत काल में नक्षत्रोँ की जो स्तिथि थी जिसे श्लोकों में वेद व्यास द्वारा लिखा गया है वह आज महाभारत के काल निर्धारण में सहायता कर रही है। नीलेश ओक और बहुत से अन्य महाभारतविद इसे आज प्रयोग में ला रहे हैं। यही भारतीय लेखन परंपरा की निरंतरता है जो भारत को सदैव प्रवाहित होने वाली सभ्यता की जननी बनाती है। 

आभार। 
कॉपी राइट @ विजय गौड़ 
कैलीफॉरनिआ, अमेरिका